
-प्रतिभा नैथानी-

‘अज्ज आखां वारिस शाह नूं’ कविता में भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय लाहौर से देहरादून वाली ट्रेन में बैठकर उन्होंने सिर्फ़ दस लाइनें लिखी थीं। लेकिन यह पंक्तियां दस न होकर बीसियों हो गई जब हजारों-लाखों विस्थापित औरतों की दर्द की ज़ुबां बन यह उस वक्त पंजाब के हर बाशिंदे के दिल में इस कदर घर कर गईं कि लोग इस कविता को जेब में रखा करते और पढ़-पढ़ कर रोते। वाकई ! इस कविता ने बहुत कम उम्र में ही अमृता को हिंदुस्तान- पाकिस्तान में मशहूर कर दिया।
उसी तरह ‘रसीदी टिकट’ भी हुई, जिसे लोग समझते हैं कि यह साहिर लुधियानवी और उनके किस्सों का पुलिंदा होगा, लेकिन ऐसा नहीं है । जैसा कि खुशवंत सिंह ने कहा था कि तुम्हारे और साहिर के क़िस्से को तो बस एक टिकट पर भी लिखा जा सकता है, पढ़ कर पता चलता है कि वाकई इसमें साहिर का जिक्र तो कुछ ही पन्नों तक सीमित है। बाकी तो इसमें वह सब लोग हैं, जिनसे अमृता या फिर वो लोग कभी- ना- कभी उनसे बहुत गहरे तक मुतासिर रहे हैं, और इसमें वह भी शामिल हैं जो बहुत गाढ़े वक्त में अमृता के काम आए हैं। अपने बारे में वह क्या सोचती थीं और लोग उनके बारे में क्या कहते थे ! यह सब बहुत बेबाकी से ‘रसीदी टिकट’ में अमृता प्रीतम ने बयान किया है।
अमृता कहती हैं कि कई बार उन्हें लगा कि औरत होना गुनाह है। लेकिन इस गुनाह को वह बार-बार दोहराना चाहेंगी अगर अगले जन्म में भी ईश्वर उनके हाथ में क़लम दे दे तो। साहित्य अकादमी पाने वाली वह पहली महिला साहित्यकार थीं। इसके अलावा ज्ञानपीठ पुरस्कार, पद्म विभूषण पुरस्कार भी प्राप्त हैं उन्हें। उनकी सौ भी से अधिक किताबों के लिए देश- विदेश में ऐसा कौन सा पुरस्कार जो अमृता प्रीतम को ना मिला हो ! उनकी रचनाएं वाकई साहित्य का अमृत हैं। कुछ रचनाओं को सिनेमा में भी स्थान मिला। ‘पिंजर’ और ‘कादंबरी’ उन्हीं की रचनाओं पर आधारित फिल्में है।
31 अगस्त अमृता प्रीतम का जन्मदिन सभी साहित्य प्रेमियों के लिए ख़ास है। अपने जीवन का कुछ महत्वपूर्ण समय उन्होंने देहरादून में भी बिताया था। क्योंकि तब उनके पास अपना कोई वाहन नहीं था इसलिए इमरोज़ ही अक्सर अपने स्कूटर पर उन्हें प्रकाशक के यहां लेने-छोड़ने का काम कर दिया करते ।
” स्कूटर पर पीछे बैठी हुई अमृता मेरी पीठ पर अपनी उंगलियों से अक्सर साहिर लिख रही होतीं” इमरोज़ कहते हैं।