
-धाीरेन्द्र राहुल-

(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार)
ये चम्बल नदी के किनारे बनी दो सरंचनाओं के फोटो हैं। चम्बल एक अभिशापित नदी रही है लेकिन फिर भी इसके किनारे पर जो सबसे बड़ा तीर्थ है, वह केशवरायपाटन है। जाने माने इतिहासकार डॉक्टर जगतनारायण ने बताया था कि पुराणों में केशोरायपाटन का उल्लेख मिलता है। उनका कहना था कि केशवरायपाटन अपनी हजारों सालों की यात्रा में दो तीन बार उजड़ा, फिर बसा जिसके चलते यहां खुदाई के दौरान प्राचीन नगर के भग्नावशेष जैसे मूर्तियां, अलंकृत प्रस्तर शिलाएं और स्तंभ मिलते रहे हैं।
आप में से जिन भी मित्रों ने केशोरायजी के मंदिर पर खड़े होकर चम्बल नदी को देखा है तो यहां नदी घूम गई है। बाढ़ का पानी पहले केशोराय मंदिर के घाटों से टकराता है फिर पूर्व दक्षिण की ओर मुड़ जाता है।

केशोराय जी के मंदिर का निर्माण 500 साल पहले बूंदी के हाड़ा राजाओं ने सुयोग्य करारीगरों से करवाया है। अपने पत्रकारिता के 43 सालों में ऐसा कोई अवसर नहीं आया कि जब वहां के घाट बह गए हो और मुझे रिपोर्टिंग करनी पड़ी हो। यानी न सिर्फ मंदिर बल्कि घाट भी काल को चुनौती देते अडिग खड़े हैं।
जबकि हाल ही में 1440 करोड़ लागत से बने घाट सप्ताह भर में ही बाढ़ में बह गए हैं। जाहिर है कि मजबूत घाट बनाने की तकनीक तो हमारे पास मौजूद है लेकिन हम उसकी ओर झांक भी नहीं रहे हैं।
नदी हैं तो बाढ़ें तो आएगी। यह जानते हुए भी कि बाढ़ में सब कुछ बह सकता है, मनुष्य रिवर फ्रंट बनाना बंद नहीं करेगा। लेकिन हमारे पास ज्ञान है, तकनीक है लेकिन फिर भी उसका उपयोग नहीं करना अपराध है।
वाराणसी, हरिद्वार, औंकारेश्वर, महेश्वर, उज्जैन, नासिक, मन्दसौर यहां तक की मेरा प्यारा कस्बां भानपुरा सभी नदियों के किनारे बसे हैं। सभी जगह घाट हैं, मंदिर हैं लेकिन मजबूत और अडिग हैं।
भानपुरा में रेवा नदी के किनारे राजघाट है। परीक्षा के दिनों में मैं अपने घर से भागकर जाता और दस मिनिट में नदी में गंठा लगाकर ( नहाकर ) वापस घर लौट आता था। रेवा नदी में बाढ़ आती थी तो घाटों पर मलबा, कीचड़ जरूर जमा हो जाता था जिसे साफ कर दिया जाता था लेकिन कभी भी घाट की शिलाओं हमने बहते या उखड़ते नहीं देखा।
हमारे सिविल इंजीनियर मित्र इस मामले में ज्यादा अच्छा मार्गदर्शन कर सकते हैं। चम्बल रिवर फ्रंट भी अब हमारा है,
समस्त कोटावासियों का है। वह भी अक्षुण्ण रहे, अडिग रहे। इसी कामना के साथ।
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