एनकाउंटर पर उठ रहे सवाल!

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प्रतीकात्मक फोटो

-विजय माहेश्वरी-

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विजय माहेश्वरी

इन दिनों पुलिस एनकाउंटर पर सवाल उठ रहे हैं। इनमें दो एनकाउंटर ऐसे हैं जिनको लेकर संदेह व्यक्त किया जा रहा है। इनमें एक एनकाउंटर उत्तर प्रदेश तथा एक अन्य महाराष्ट्र में हुआ है। इन दोनों एनकाउंटर पर सवाल उठाने वालों का कहना है कि यह फर्जी हैं और हकीकत को छुपाने या किसी षड़यंत्र की वजह से इन्हें अंजाम दिया गया है।
यह माना जाता है कि पुलिस सामान्यतः फर्जी एनकाउंटर सत्ता में बैठे लोगों के इशारे पर करती है और यह नाम का ही एनकाउंटर होता है, असलियत में यह हत्या होती है।
सामान्यतः ऐसी हत्यायें दो ;या तीन कारण से होती है। पहली अपराध में लिप्त असली अपराधी या अन्य रसूखदार अपराधियों के खिलाफ सबूत मिटाने के लिए, जैसे महाराष्ट्र के बदलापुर एनकाउंटर मामले में संदेह हो रहा है।
दूसरा अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदियों को ठिकाने लगाने के लिए। खासतौर से जब यह लगता हो कि सबूतों के आधार पर आरोप सिद्ध करना कठिन है।
तीसरा सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए किसी दुर्दान्त अपराधी को मारना।
पुलिस हमेशा एक ही तर्क देती है कि आरोपी ने पुलिसकर्मी पर पिस्तौल या अन्य हथियार से जान लेवा हमला किया और पुलिस को आत्मरक्षा में गोली चलानी पड़ी। लेकिन सवाल उठता है कि पुलिस की ओर से आत्मरक्षा में चलाई हुई गोली आरोपी के सिर या सीने जैसे मर्मस्थल पर ही क्यों लगती है, हाथ पैरों में क्यों नहीं? जबकि पुलिस में भर्ती के लिए जो प्रशिक्षण दिया जाता है उसमें हथियार चलाना भी शामिल है। ऐसे से प्रशिक्षित पुलिसकर्मी की गोली यदि अपराधी के सिर या सीने पर लगे तो संदेह पैदा होगा ही।

अगर आम आदमी आत्मरक्षा में भी किसी हमलावर को मार दे तो भी उस पर मुकदमा चलता है और सजा मिलती है। ऐसी सूरत में पुलिस से और अधिक समझदारी की उम्मीद की जा सकती है।
न्यायालय में भी सरकार महंगे से मंहगे वकील खड़े करके एनकाउंटर के नाम पर हत्या के लिए दोषी पुलिस कर्मियों को बचा लेती है। ऐसे में एनकाउंटर के औचित्य पर सवाल खड़े होंगे ही। हम लोकतंत्र में रहते हैं ऐसे में किसी भी अपराधी को अपराध सिद्ध होने के बाद सजा का अधिकार न्यायालय को है।

(लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं)

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