
-प्रतिभा नैथानी-

“चलो फुलारि फूलों को” गाती हुईं हर रोज़ फूल चुनकर लाती छोटी कन्याओं को गुड़,चावल और पैसों का प्रसाद मिलता है हर देहरी पर फूल रखने के बदले में। माह समाप्ति पर पर्व के आख़िरी दिन बैसाखी पर सभी फुल्यारियों को दाल की कचौड़ियाँ और पकौड़े जीमने को मिलते हैं ।
कितनी सुन्दर है ना ये परंपरा । फूलों का यूं छककर लद जाना कि महीने भर तक भी फूल तोड़ते रहो तो भी डालियां अपना भार कम हुआ न जानें ! ऐसा सौभाग्य ऋतुराज ने सिर्फ़ पहाड़ी राज्यों को ही दिया है ।
चैत्र के महीने में बर्फ़ पिघलने के साथ ही यहां छोटे-छोटे फूल खिलने लगते हैं। यूं फूलों के नाम पर पर्यटकों को सिर्फ़ फूलों की घाटी पता है, लेकिन वहां पहुंचना सबके वश की बात नहीं और दूसरी बात वहां फूल खिलने का मौसम सितंबर के बाद शुरू होता है।
कपाट खुलने पर बद्रीनाथ से आगे यदि सतोपंथ की ओर भी जाया जाए तो रास्ता फूलों की कालीन सा मालूम होगा। हर रंग के अनगिनत फूल खिलते हैं यहां। ‘मेघदूतम्’ में कालिदास ने जिन सुंदरियों को फूलों का श्रृंगार करके विचरण करते हुए बताया है, अलकापुरी का वह मार्ग सतोपंथ वाला ही होगा, मैं ऐसा मानती हूं।
बर्फ़ के बाद फूल ही तो वह सबसे बड़ा आकर्षण हैं, जो इस भूमि को दिव्यभूमि बनाते हैं। आज से हमारे प्रदेश का फूलदेई पर्व प्रारंभ हो रहा है। हिमालय की गोद में फूलों के खिलने-बिखरने का यह उत्सव यूं ही गुपचुप ना बीत जाए। आओ चलें पहाड़ की ओर।
#फूलदेई