
-मनु वाशिष्ठ-

भयौ भात कौ कोट, ओट गिरिराज ढकानौ।
अन्नकूट का मतलब है, अन्न का पर्वत।
यानि कि केवल चावलों का ही इतना बड़ा कोट, बड़ा ढेर था, जिसमें गिरिराज पर्वत ही ढक (छुप) गया।
पांच दिवसीय चलने वाले दीपावली के चौथे दिन यानि कार्तिक शुक्लपक्ष प्रतिपदा तिथि को गोवर्धन पूजा होती है। जैसा कि नाम से ही पता चलता है, गौ+वर्धन अर्थात गाय वंश में वृद्धि होना। इस पर्व में मनुष्य और प्रकृति/ पशुओं के साथ सीधा संबंध दिखता है। गोवर्धन पूजा से पहले पशुपालक किसान अपने जानवरों को नहलाते सजाते संवारते हैं फिर सांय काल में गोवर्धन पूजा (अन्नकूट महोत्सव) की जाती है। इस पूजा की शुरुआत भगवान श्री कृष्ण ने की थी। इससे पहले लोग इंद्र देवता की पूजा करते थे तथा उन्हें कई प्रकार के पकवान, मिठाइयों को बनाकर भोग लगाया जाता था। ब्रज के देवालय, मंदिरों में दिवाली के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा व अन्नकूट का आयोजन किया जाता है। भगवान को अर्पित किए जाने वाले प्रसाद को परंपरागत नियमों से बनाया जाता है। छप्पन भोग में सकरी, व असकरी रसोई के अनुसार अनेक व्यंजन बनाए जाते हैं। जैसे_ लड्डू, चूरमा, मालपुआ, गुजिया, सौंठ, बर्फी, इमरती, सकरपारे, मठ्ठे, दहीबड़ा, सिखरन, पूड़ी, हलवा, बाजरा, खिचड़ी, मूंग, कढ़ी, चावल, मिक्स सब्जियां, और भी ना जाने क्या क्या…. हालांकि अब परंपरागत व्यंजनों से हटकर कचोरी, समोसा, बर्फी, गुलाब जामुन, चमचम, रसगुल्ले आदि कई नई मिठाइयों का भी समावेश होने लगा है। घर पर गाय के गोबर से गोवर्धन बनाकर उसका पूजन किया जाता है, तथा घर के सभी सदस्य जयकारे लगाते हुए, पहले पुरुष बच्चे फिर स्त्रियां परिक्रमा करते हैं।

गोवर्धन अंगुल उठे, रुके #इन्द्र के नीर !!
भय चिंता वह न करे, जाके मित्र #अहीर !!
इंद्र की पूजा ना करने पर नाराज इन्द्र ने वर्षा से ब्रजवासियों को हाल बेहाल कर दिया। तब इन्द्र का मान भंग करने के लिए भगवान श्री कृष्ण ने अपनी छोटी अंगुली पर सात दिनों के लिए गिरिराज पर्वत को धारण कर ब्रजवासियों को इन्द्र के कोप से बचाया। आठवें दिन, ब्रजवासियों ने अपनी इच्छा, सामर्थ्य के हिसाब से, एक दिन में आठ पहर व सात दिनों के अनुसार (८×७) छप्पन प्रकार के पकवान बनाकर श्री कृष्ण को भोग लगाया। तभी से गोवर्धन पर्व पर छप्पन भोग की परम्परा अनवरत जारी है। ब्रज क्षेत्र में अन्नकूट गायन की परम्परा भी है। जब भगवान (ठाकुर जी) को छप्पन भोग लगाया जाता है, तब ब्रजवासी रसिकजन छप्पन भोग के पदों का गायन करते हैं। गोवर्धन परिक्रमा के बारे में तो सभी जानते होंगे, वैसे तो यह बारहों महीने दिन रात चलती है, लेकिन शुक्ल पक्ष एकादशी से पूर्णिमा तक बहुत भीड़ रहती है। सात कोस की परिक्रमा में लोगों की बहुत आस्था है, कई दूध की धार से परिक्रमा करते हैं तो कई दंडवत परिक्रमा करते हैं, उपरांत मानसी गंगा में स्नान का बड़ा महत्व है। कहते हैं जब श्री कृष्ण भगवान के माता पिता बूढ़े हो गए और उन्होंने चारों धाम की इच्छा जताई लेकिन असमर्थ होने की वजह से, भगवान श्री कृष्ण भगवान ने अपने योग तपोबल से (मानस से) चारों धाम को यहीं पर स्थापित किया। इससे इस क्षेत्र का महत्व और बढ़ जाता है। ऐसी मान्यता है कि पांच हजार साल पहले गोवर्धन पर्वत तीस हजार मीटर ऊंचा होता था, और अब यह केवल तीस मीटर ऊंचा रह गया है, रोज यह तिल तिल घट रहा है। कहते हैं कि यह एक ऋषि के श्राप के कारण हुआ है। यहां सभी भक्तों की मनोकामना पूर्ण होती है। यहां कोई भूखा नहीं रहता, ना ही कोई खाली हाथ लौटता है। यहां की महिमा तो जितनी कही जाए कम है, एक प्रचलित भजन के साथ लेखनी को विराम देती हूं, ये भजन शायद सभी ने सुना हो __
मैं तो गोर्वधन कूं जाऊं मेरे वीर नांयं माने मेरौ मनवा।
सात कोस की दै परिक्रमा,
मानसी गंगा नहाऊं मेरे वीर नांयं माने मेरौ मनवा।।
__ मनु वाशिष्ठ, कोटा जंक्शन राजस्थान