
-राजेश खंडेलवाल-
(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार)
जीवन की एक अवस्था में हर किसी का मुझसे पाला पड़ता है। नर हो या नारी, मेरे आगोश में आने मात्र से उसका तन और मन दोनों ही क्षीण होने लगते हैं। उस अवस्था तक पहुंचने पर मुझसे कभी कोई बच नहीं सका है, हालांकि कुछ सुव्यवस्थित दिनचर्या के कारण इंतजार कराते हैं तो कुछ मुझे सहज अपना लेते हैं। कुछ तो समय से पहले खुद ही मेरी गिरफ्त में आ जाते हैं। उद्भव के साथ ही जब मुझे बुढ्ढ़ा, खुसठ् जैसी उपमाएं सुननी पड़ती हैं तो मेरे अपनों के साथ-साथ मुझे भी दु:ख होता है, लेकिन यह तो मेरे दुर्दिनों की शुरूआत मात्र है।

कोई अमीर हो या गरीब, श्वेत तन हो या फिर श्यामल। इससे फर्क नहीं पड़ता। मेरा साथ ही उसकी काया पलटने को पर्याप्त होता है। कभी मेरा अपना अपने ही कइयों का सहारा बना। लेकिन जब उसे सहारे की दरकार हुई तो वह ऐसा बेसहारा बन गया है, जिसकी उसने कभी सपने में कल्पना भी नहीं की होगी। यह देख और जानकर मैं भी बे-इंतहां हताश व निराश होता रहता हूं, पर अब मुझमें इतना सामर्थ्य कहां कि मैं किसी के भरोसे ही ना रहूं।
जीवन में भूख हर किसी को लगती है और लगनी भी चाहिए। उसके पापी पेट की भूख तो मेरे कारण घटने लगती है, पर हलक में रोटी नहीं उतरने जैसी हालत में भी मेरा अपना मोहपाश के ऐसे बंधन में जकड़ा रहता है कि उसकी मोहरूपी निष्ठुर भूख कभी नहीं मिटती, जिसका जरूर मुझे मलाल रहता है। मेरे कई अपने तो माया की चकाचौंध में इतने दूरदृष्टिहीन हो जाते हैं कि खुद ही अपनों को दूर (परदेश) भेज देते हैं। माया रूपी भंवरजाल में उलझे मेरे अपनों को इसका अहसास तब होता है, जब उनके अपने उनसे इतने दूर चले जाते हैं कि फिर लौटकर नहीं आते। ऐसी अवस्था में उनके टूटते सपनों का दर्द मुझे भी होता है, पर मेरे अपने की इस गलती को सुधारू भी तो कैसे? वेदना तब और बढ़ जाती है, जब कई बार तो मेरे अपने के अंतिम दर्शन भी उसके अपने को नसीब नहीं होते। मेरा हाथ पकडऩे से पहले मेरे अपने के चहुंओर मोहमाया का ऐसा भ्रमजाल फैला रहता है, जो कभी किसी को नहीं दिखता, लेकिन मैं ही तो हूं, जिसके कारण मेरा अपना धीरे-धीरे इन्हें महसूस ही नहीं करता, बल्कि पूरी तरह समझने भी लगता है। इस दौर में होने वाली पीड़ा उस समय असहनीय होती है, जब मेरे अपने के अपने ही उससे दूरी बनाने लगते हैं।
मेरा भी मान, सम्मान और स्वाभिमान है, लेकिन समय के साथ मेरा यह भ्रम ही नहीं टूटता, बल्कि मुझे अपमान के ऐसे-ऐसे कड़बे घूंट पीने को विवश होना पड़ता है, जिनके बारे में तो मैं कभी सोच भी नहीं सकता। मेरे अपने के आंगन में मधुर मिलन का संगीत और फिर गूंजती किलकारी सुन मेरा रोम-रोम खिल उठता है और तन-मन भी मयूरी नृत्य करने लगता है, पर मेरा अंतर्मन तब रो उठता है, जब मेरे अपने के अपने उसका सब कुछ छीनने को आतुर नजर आते हैं। इससे भी उन्हें सन्तुष्टि नहीं मिलती तो फिर होता है, मेरे अपनों का बंटवारा। इस दौर में होने वाली किचकिच से आहत मेरा अपना राहत पाने के जतन की कम जद्दोजहद नहीं करता। मगर नैतिक मूल्यों के पतन की पराकाष्ठा तो तब होती दिखती है, जब वे मेरे अपने को अपने ही घर से बेदखल तक करने से बाज नहीं आते।
अपनी बगिया में खिलते फूलों को देख जब मेरा अपना मंद-मंद मुस्कुराता और अपनी गोद में चलता हुआ खिलखिलाता है तो मुझे भी सुकून का अहसास होता है। लेकिन मैं तब कराह उठता हूं, जब मेरे अपने की बरगद रूपी छाया भी उसके फूलों को नहीं सुहाती। टीस उस समय भी कम नहीं होती, जब फूलों की जुबां से निकले पत्थर रूपी शब्द मेरे कानों में सुनाई पड़ते हैं। डूब मरना तो मेरे लिए तब हो जाता है, जब जीवनसाथी के बिछुडऩे के बाद मेरे अपने के चरित्र तक पर अंगुली उठने लगती हैं, मगर निढ़ाल अवस्था में ऐसा सहने के अलावा मैं कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं होता। सवा सौ करोड़ से अधिक की आबादी वाले देश में मेरे अपनों (बुजुर्गों) की अनुमानित संख्या 20 करोड़ से ज्यादा है। विविधताओं से भरे विभिन्न प्रांतों में हजारों ऐसे आश्रय स्थल (पंजीकृृत व अपंजीकृत वृद्धाश्रम) खुले हैं, जिनमें बेसहारा, बेबस और दुत्कारे गए मेरे अपने (बुजुर्ग) रह रहे हैं, जिनकी संख्या लाखों में हैं और दिनों-दिन इसमें बढ़ोतरी हो रही है।
अपना दु:खड़ा सुनाकर मैं आपको भी दर्द देना तो नहीं चाहता, लेकिन सुनाना इसलिए जरूरी समझ रहा हूं कि देर-सवेर आप भी मुझसे रू-ब-रू होंगे जरूर। तब आप भी ऐसे ही सुबकने को मजबूर होंगे, जैसे मेरा अपना वृद्ध आश्रमों में रहकर रो तो रहा है पर आंखों के आंसू छिपाकर। मेरे अपनों के ऐसे आश्रमों में पहुंचने के कारण चाहे जो गिनाएं जाते हों, लेकिन इसकी मूल वजह उसके अपनों का संस्कारहीन होना है और संस्कारों के पतन की मूल जड़ एकाकी परिवार प्रथा का बढ़ता चलन है। पाश्चात्य संस्कृति के इस दौर में वह यह तक भूल बैठता है कि एक दिन उसे भी मेरे ही आगोश में आना है। मेरे अपनों की इससे भी ज्यादा दुर्गति तो उसके अपनों के घर में हो रही है, जहां वह ना हंस सकता है और ना ही रो पाता है। किसी को कुछ कहे तो बुढ्ढ़ा सट्या गया है, जैसे शब्द सुनने पड़ते हैं और ना बोले तो बुढ्ढ़े की मति मारी गई है, तक सुनकर सहना पड़ता है। लेकिन करूं भी तो क्या?, इस सबका जनक भी तो मैं ही हूं।
मेरा सिर उस समय शर्मसार हो गया, जब वैश्विक संकटकाल में मेरे अपने ने अंतिम सांस ली। उस दौर में जीवन की डोर टूटी तो रिश्ते-नाते भी तार-तार होते दिखे। सगे-संबंधियों तक ने ही अपने के अंतिम दर्शन करने से दूरी नहीं बनाई, बल्कि मेरे अपने के लाल ने मुखाग्नि तक देकर निहाल नहीं किया। पानी-पानी तो मैं तब हुआ, जब ऐसे हाल में भी मेरे अपने के लाल देवतुल्य माता या पिता की पार्थिव देह से आभूषण तो उतार ले गए। उस दौर में इन नजारों को देख मेरी रूह कांप उठी, पर लाचारी का मारा मैं करता भी तो क्या? किन्हीं भी कारणों से आहत मेरे अपनों (बुजुर्गों) को जिम्मेदारों (सरकारों) की ओर से राहत के दिवास्वप्न तो खूब दिखाए जाते हैं। उनके जीवनयापन के लिए वृद्धावस्था पेंशन तो संरक्षण के लिए कानून भी बने हैं। बावजूद इसके जरूरतमंद मेरे अपने परायों के भरोसे जीवन के अंतिम दिन काटने को मजबूर हैं। इनकी इस बेबसी व लाचारी को देख मैं खुद भी सुबक उठता हूं, लेकिन मेरी कमजोर होती शारीरिक व मानसिक शक्ति के साथ ही सामथ्र्यहीन अवस्था होने के कारण कुछ कर नहीं पाने की पीड़ा मुझे कचोटती रहती है। जीवन का यही शाश्वत सत्य है कि मैं हर किसी का हाथ यूं ही नहीं पकड़ता। इसका भी मकसद होता है, लेकिन उसे बहुत कम समझ पाते हैं, ज्यादातर तो उससे पहले ही अंतिम सांस तोड़ जाते हैं। मैं ही उसकी सद्गति और मुक्ति का मार्ग हूं, लेकिन इस अवस्था में आकर और ना सहने जैसा सहकर भी मेरे अपने की आंखें नहीं खुलती तो फिर आप ही बताएं कि मैं करूं भी तो क्या?
(राजेश खंडेलवाल की मन दर्पण पुस्तक से साभार)