– बृजेश विजयवर्गीय-

वैसे तो यह पंक्ति श्री हनुमान चालीसा की है लेकिन आजकल कोटा में कोंचिंग छात्रों में बढ़ती आत्म हत्या के मामलों ने लोगों को चौकाया है और कोटा पर लगा यह कलंक धोने के प्रयास हो रहे है। इस पंक्ति का इस लेख से क्या संबंध है?
तो विचार करिए कि 24 घंटे में तीन छात्र एक ही कोचिंग संस्थान के हों और आत्म हत्या के प्रयास हों या साल भर में आत्म हत्या करने वालों का आंकड़ा 100 के आसा पास हो तो सभी को सोचना ही पड़ेंगा कि आखिर शिक्षा नगरी का तमगा ओढ़े शहर में ये क्या हो रहा है। इसका दोषी कौन है? क्या कोचिंग संचालक ही अकेले दोषी है या हमारी शिक्षा प़द्धति या राजनीतिक या सामाजिक व्यवस्था। क्या इसे भी उसी तरीके से भुला दिया जाएगा जैसे अन्य कोई हादसा भुला दिया जाता है उसके भूलने से पहले ही फिर कोई नया हादसा हो जाता है।
कोई यूं ही आत्म हत्या नहीं करता वह जवान छात्र हो या किसान या कोई और। दर असल जहां शिक्षा को संस्कार से जोड़ने पर काम होना चाहिए वहां सिर्फ और सिर्फ ऐन केन प्रकारेण परीक्षा पास करने और डाक्टरी तथा इंजीनियरिंग में कॅरियर सुनिश्चित करने पर जोर दिया जाता है। जैसा कि खबरों में आ रहा है कि जो किशोर इन पाठ्यक्रमों में पढ़ना नहीं चाहते उन्हें अभिभावक जबरन इसमें डाल देते है। कोचिंग संचालक भी इस पर ध्यान नहीं देते कि जो छात्र यहां प्रवेश ले रहा है वह उस परीक्षा को पास करने की कुवत रखता है या नहीं। उच्च शिक्षा में नाकाम रहने पर क्यों छात्रों- युवाओं को अपना भविष्य सुरक्षित नहीं लगता? क्या सरकारें इस पर मंथन करना चाहती है ? लोग कहते हैं कि समाज के लोग अभिभावक भी जिम्मेदारी समझे ंतो यह एक अनवरत प्रक्रिया है। आम धारणा है कि लोग उधर ही प्रवृत्त होते है जहां लाभ दिखता है। समाज की अवाजें तो सामाजिक संस्थाओं में होती है लेकिन सरकारें एक व्यवस्था का काम करती है उन्हें चुनकर भेजा जाता है और कानून बनाने और उनका पालन कराने की ताकत सरकारों की ही होती है अतः सरकार को ही आत्महत्याऐं रोकने की जवाबदेही लेनी होगी। सरकारें ही ऐसा वातावरण बना सकती है कि मेडिकल और इंजीनियरिंग,चार्टर्ड अकाउण्टेंसी,प्रशासनिक सेवाओं के अलावा भी कॅरियर में उनसे बेहतर विकल्प है। क्या अच्छा शिक्षक,वकील, किसान,व्यापारी,खिलाड़ी,सैनिक,उद्योगपति,कलाकार आदि समाजसेवी सफलतम लोगों में नहीं आते क्या?या इनमें पैसा नहीं है? सरकार को रोजगार परक विद्या का मॉडल प्रस्तुत करना होगा। क्यों किसी व्यवसाय या पेशे को कमतर आंका जाए। इन प्रश्नों का जवाब मनोवैज्ञानिक नहीं दे सकता वह केवल काउंसिलिंग कर सकता है नीति निर्माण नहीं।
किसानी और खेती से युवा वर्ग को कैसे जोड़ा जाए क्या इस पर विचार नहीं होना चाहिए।70 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर है लेकिन कोई किसान अपने बच्चों से खेती नहीं करना चाहता क्यो? इनत तमाम सवालों के जवाब सरकारों को ही देने है।
नौकर बनाने की पद्धति में आमूल चूल परिवर्तन करना ही होगा,सभी चीजें निजी क्षैत्र के भरोसे नहीं छोड़ी जा सकती।
क्या अंतर है शिक्षा और विद्या मेंः शिक्षा हमें लाभ दिलाती है और विद्या शुभ। शिक्षा हमारे सभी प्रकार के लालच की पूर्ति करने का साधन है जो कॅरियर के माध्यम से भविष्य में तमाम प्रकार की आधुनिक सुविधाऐं जुटाने को ही जीवन अंतिम सत्य मानने को प्रेरित करती है। इनमें कुछ कमी रह जाए तो फिर अवसाद का दौर शुरू हो जाता है। तमाम आधुनिक सुविधाऐं इसे कम नहीं कर सकती। जबकि विद्या हमें संस्कार सिखाती है और जीवन जीवन जीने की कला भी। विद्या हुनर पैदा करती है जो किसी भी हालत में संकट का सामना करना सिखती है। इसी लिए तो पूर्व में विद्यालय होते थे जो अब स्कूल या कॉनवेंट कहलाने लगे। यहां शिक्षावान नहीं कहा गया है कहा है… विद्यावान गुनी अति चातुर…!
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं)
राज्य सरकारों तथा केन्द्र सरकार के शिक्षण संस्थानों में गुणात्मक शिक्षा के अभाव में छात्र कोचिंग सेंटर में दाखिला लेते हैं और यहां कठोर प्रतियोगिता और कोचिंग सेंटरों में अच्छे रिजल्ट आने के दबाव को हमारे होनहार नवयुवक झेल नहीं पाते हैं और इसका परिणाम कोटा कोचिंग के 3 छात्रों का एक दिन में आत्म हत्या का दर्दनाक मंजर. इस व्यवस्था का दोष सरकार पर अधिक जाता है अभिभावक भी डाक्टर इंजीनियर का सपना अपने बालकों में देखना चाहते हैं इसीलिए ….