“चाय, जीवन और बातें”

विवेक कुमार मिश्र का कविता संग्रह –
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– हितेश व्यास

hitesh vyas
हितेश व्यास

1 जुलाई 1972 को जन्मे डॉ. विवेक कुमार मिश्र का यह दूसरा काव्य संकलन है। इससे पूर्व दिसम्बर 2018 में बोधि प्रकाशन जयपुर से “कुछ हो जाते पेड़ सा…” प्रकाशित हो चुका है। मैंने उसकी भी सुदीर्घ समीक्षा की थी। नई कविता के प्रतिनिधि कवि मुक्तिबोध की सुप्रसिद्ध और सुदीर्घ कविता ‘अंधेरे में’ पर विवेक कुमार की आलोचना, पुस्तक, “मुक्तिबोध कृत अंधेरे में, पाठ व अर्थ की खोज”, 2021 में अमन प्रकाशन, कानपुर से प्रकाशित हो चुकी है। राजकीय कला महाविद्यालय, कोटा, राजस्थान के हिंदी विभाग में वे आचार्य पद पर कार्यरत हैं। विवेक ने डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी और डॉ. मैनेजर पांडेय के आलोचना कर्म के तुलनात्मक अध्ययन पर पीएच.डी की है।

जैसे उनका प्रथम कविता संग्रह पेड़ पर केन्द्रित था, प्रस्तुत कृति चाय पर केन्द्रित है . यह -2023 में सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर से प्रकाशित है . स्वयं लिखित फ्लैप कथन और कृति का आत्म कथ्य, ‘अपनी बात’ तो पुस्तक में है, किंतु किसी अन्य की भूमिका नहीं है . 158 पृष्ठ की किताब में 114 कविताएं शामिल हैं . डिमाई आकार में पेपर बैंक संस्करण में मुद्रित है यह।

‘डॉ. विवेक कुमार मिश्र नियमित रूप से गद्य लिखते हैं, इसलिए कविताओं की भाषा गद्यात्मक – सी है. इस बात को यूं भी कह सकते हैं कि बोल चाल की स्वाभाविक भाषा काम में ली है उन्होंने।

इस कृति की क्या कहा जाये? चूंकि सब कविताएँ चाय पर हैं, तो क्या यह चाय पर लिखा हुआ महाकाव्य है ये? चूँकि यह महाकाव्य की शर्तें पूरी नहीं करता तो क्या यह चाय पर लिखित प्रबन्ध काव्य है ?

इस कृति में बातों की पुनरावृत्ति बहुत हैं . लेकिन यह कवि का दोष नहीं है . जब चाय, जीवन और बातों पर 114 कविताएँ लिखनी हो, तो दोहराहट स्वाभाविक है. आखिर आप चाय पर नया क्या कह देंगे ?

इस सबके बावजूद यह तो कहना ही पड़ेगा कि डॉ. विवेक कुमार मिश्र ने चाय का कोई आयाम, कोई सन्दर्भ नहीं छोड़ा है।

आइये अब हम इस तथ्य को कविताओं से पुष्ट और प्रमाणित करते हैं।

चाय के ठीहे का चित्रण देखिये, “पेड़ के नीचे चाय का एक ठीहा हैं, कुछ पत्थर, कुछ मूढ़े , कुछ देसी जुगाड़, . बैठने की बेंच बनाते हैं, कुछ भी यहाँ सजा नहीं है . ” इस दृश्य में सादगी है . चाय, जीवन के साकार का प्रतीक है , “चाय की पत्ती की सुगन्ध, हर नकारात्मकता को छाँट देने के लिए काफी होती “;. कवि सूत्र में कहता है, ” चाय जीवन की एक सेतु शिला है ” . चाय अपनत्व उपजाती हैं, “चाय पर कई सारे अपरिचित चेहरे ऐसे मिलते हैं कि सदियों से एक दूसरे को जानते आ रहे हों ” . चाय की उदारता देखें , ” चाय पीते संसार ये सहमतियाँ ही नहीं होतीं , असहमतियाँ भी जीवित होती रहती हैं ” . चाय अकेलेपन से उबारती है , ” अकेलेपन के खिलाफ़ सांसारिक होने की खबर चाय से जुड़ जाती है ” . विवेक चाय और संगीत में साम्य देखते हैं ,” चाय संगीत के राग सी धीरे-धीरे मन पर चढ़ती है” . ये बात आप कइयों के लिए कह सकते हैं , “चाय की थड़ी इनका घर है ” . चाय रहती कहाँ है?,” अंत में उबलती चाय का घर केतली होती ” . चाय मुक्तिदाता है, “चाय पीते-पीते आदमी उतार, देता कपड़े की तरह थकान, ऊब, खिन्नता , अलसायापन ” . चाय और अॉफिस में सीधा सम्बन्ध है “चाय की दुकानों को कार्यालयों की दरकार होती , कार्यालय को भी चाय की दुकान चाहिए ” . यह सही है कि “चाय एक बौद्धिक खुराक है ” . कवि ने चाय और मनुष्यता को जोड़ा है,” चाय में रिश्तों की मानवीय संवेदना की और जीवन ‘के बीच पकते संबंधों की कथा गुंथी होती है ” . चाय की ठसक देखिये, “चाय पर ऐसे बैठे होते हैं जैसे कि दो देशों के राष्ट्राध्यक्ष बैठे हों , नीतियां बना रहे हों ” . चाय समाधान में सहायक है,” अन- सुलझे रास्तों’ को सुलझाने का काम चाय करती रहती है ? ”

कभी कभी, विवेक, सूत्रों में आप्त वाक्य कह देते हैं, ” चाय, अकेलेपन का प्रति संसार है ” .
या कि ” चाय का अपना समाजशास्त्र है ” . या, कि “चाय पर अपने-अपने हिस्से की गणित लिए लोग मिलते हैं ” . याकि “चाय पीना भी किसी उन्माद में शामिल हो जाने जैसा ही होता था ” . या कि ” ऐसी चाय जीवन, ऊर्जा की बूस्टर कहलाती ” . या कि” इसलिए कोई भी ‘चाय कथा’ कठिन हो, उससे पहले ही चाय पीना ख़त्म कर लें ” . याकि “एक साहब चाय पीने अकेले, ही आते हैं , एक दार्शनिक बोझ को लिए लिए आते हैं ” .

चाय हमेशा आनंदित ही नहीं करती,” चाय एक ऊब से दूसरी ऊब की कथा हो जाती ” . चाय और बात के बीच सीधा सम्बन्ध है, “जब तक चाय के साथ बातों का कहकहा न लगे तब तक चाय पीने का कोई अर्थ नहीं” . चाय सूर्योदय है, ” एक सुबह, एक अच्छी चाय से खुले तो दिन अनंत रंगों में खिल उठता ” . चाय में अपनापन है , “चाय हमारे बीच के अजनबीपन को मिटाने का काम करती है ” . चाय मैत्री है, “दो दुश्मन, चाय पर दुश्मनी को भुला ,मित्रता की परिधि में ‘सिमट जाते ” . कुल्हड़ में चाय की बात ही और है , ” कुल्हड़ में चाय पीते हुए, कुम्हार के प्रति संवेदना और राग के साथ, माटी के रंग और राग जाग जाते हैं ” . कवि ने चाय और जिंदगी की हरकत को जोड़ा, है , ” बल्कि इस खौलती चाय में, जिंदगी भी खौलती रहती है ” . कवि ने सूर्य को भी जोड़ा, ” सूरज दादा की तरह, चाय बिन कहे जागरण का पद दे जाती ” . चाय से जुड़ा ये संवाद सार्वभौमिक है,” चाय पिला दे भैया ! कड़क कड़क चाय पिला दे, कोई कहता चीनी कम, कोई कहता चीनी ज्यादा ” . चाय के अभाव में सब नीरस है. “चाय नहीं पिलायी, फिर करते रहो बातों की बात , नहीं आता बातों में कोई रस ” . कवि ने चाय को दृश्य बिंब से दर्शाया है , ” चाय पीते आदमी से अच्छा दृश्य इस दृश्यता भरे बाजार में और नहीं दिखता ” . चाय सामान्यता का संदेश देती है, ” चाय हर तरह के विशेषीकृत संसार के वर्जित इलाके को तोड़- कर एक सहज संसार का केन्द्र बन जाती ” . चाय और खामोशी में गठबन्धन है,” चाय के साथ कोई शोर नहीं होता” . बाजार ने चाय को नहीं छोड़ा,” बाजार की चाय, जिसके मुँह लग गई , उसे घर की चाय, चाय ही नहीं लगती ” . चाय- घर और युनवर्सिटी, ” बाजार में जो चाय की दुकान थी, वह किसी बहस, विमर्श और ज्ञान केन्द्र के विश्वविद्यालय से कम नहीं थी “। चाय और प्रकृति का साम्य कवि ने दिखाया है,” फूल को खिलते देखना और भाप उठती चाय को देखना ” । चाय और चुगली बेमेल हैं, ” कई बार चाय का ज़ायका भी चौपट हो जाता, जब चाय एक दूसरे की चुगली में शामिल हो जाती “। चाय सांस्कृतिक बनाती है , ” चाय पर आदमी, संस्कृति पुरुष की तरह आता है “। चाय अप्रगट को प्रगट करती है , “भीतर का आदमी, चाय के स्वाद के साथ बाहर आ जाता है ” ।

चाय, मौन को तोड़ती है, “चाय, खामोशी, चुप्पियों को तोड़ कर बातों की नदी बहा देती है ” . कवि इसका विलोम भी कहता है, ” चाय एक जीवन की आस है, उम्मीद की नदी है, जो खामोशी की चादर ओढे, मन आत्मा पर उतर जाती ” । कवि ने चाय की व्याप्ति बतलाई है , “चाय पीने के संसार में, गलियाँ, नुक्कड़ , मोड़ , सड़कें, चौराहे और आदमी की दुनिया होती है “। सब कुछ चुकने के समय में चाय पर फिर भी शेष है , ” जो कहीं नहीं बचा वह चाय पर बचा है “। चाय समानता का सन्देश देती है , “चाय की थड़ी पर आते ही, जाति की, धर्म की , पद की, प्रतिष्ठा की पहचान एक सिरे से भुला दी जाती “। कवि चाय के लिए निषेध भी करता है , “चाय केवल इसलिए नहीं होती कि निंदा-पुराण को लेकर बैठ जाये “। चाय तो चेतना लाती है , ” राग-विराग से परे होकर चाय पीते, चैतन्य के विराट सागर में गोते लगाने लगते “। पड़ौस की सार्थकता चाय से है , “पड़ोस में घर तो होगा पर चाय की प्याली है कि नहीं’ ” . गाँव के आदमी के लिए चाय आत्मीयता है, ” यदि कोई गांव का आदमी, चाय पीने की मनुहार करे तो छोड़ कर मत का जाना “।

मुक्तिबोध की एक तस्वीर में वे बीड़ी पीते नजर आते हैं, यह सर्वविदित है, इसे चाय से जोड़ना एक ज्यादिती है।

कवि ने चाय पीते आदमी की एक मुद्रा विशेष अंकित की है, “एक आदमी चुपचाप चला आता और धीरे धीरे चाय सुड़कता जाता , वह चाय को ऐसे पीता जैसे कि दाल पी रहा हो ” . चाय के लिए अच्छा साथ चाहिए, ” जब चाय पर सही संदर्भ से सही आदमी साथ बैठे हों “. चाय जगाती ही नहीं सुलाती भी है,” यह भी हो सकता है चाय पीते ही आप सो जायें”।

इस प्रकार डॉ. विवेक कुमार मिश्र ने हमें चाय के विभिन्न प्रसंगों, संदर्भों, आयामों से गुजार दिया. प्रस्तुत काव्य संग्रह , चाय पर कविताओं का संचयन तो है ही , चाय पर चिंतन का महाग्रंथ भी है। हमें साहित्य में ऐसे मौलिक प्रयोगों का बिना पूर्वग्रह, दुराग्रह के खुले मन और विचारों के साथ स्वागत करना चाहिए ।

– हितेश व्यास ,
6ए /705,
कल्पतरु सेरेनिटी, महादेव नगर, मांजरी, त्र
पुणे-412307 (महाराष्ट्र)

मो. 8208312404

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