
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
आज के दिन का ये इन्आम* भी हो सकता है।
हादिसा* कोई सरे-शाम भी हो सकता है।।
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मेरे होठों पे यही तिशनगी* रह सकती है।
मेरे हाथों में कोई जाम भी हो सकता है।।
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तुम किसी ग़ैर की महफ़िल को सजा सकती हो।
यूॅं मेरे इश्क़ का अंजाम भी हो सकता है।।
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वो बहाना भी बना सकता है आने के लिये।
उस सितमगर* को कोई काम भी हो सकता है।।
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ग़ैर मुमकिन* तो यहाँ कुछ भी नहीं है “अनवर”।
उड़ रहा है जो तहे-दाम* भी हो सकता है।।
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इन्आम* पुरस्कार
हादिसा*दुर्घटना
तिशनगी*प्यास
सितमगर*ज़ुल्म करने वाला प्रेमिका
ग़ैर मुमकिन*असंभव
तहे-दाम*जाल के अंदर
शकूर अनवर
9460851271
शकूर अनवर साहब ने श्रृंगार रस में डूबी ग़ज़ल की पिचकारी चलाई है.. बहुत खूब..