रामस्वरूप दीक्षित

——-
मैं तुम्हें फोन करता हूँ रोज ही
तुम पूछती हो हर बार
“कहिये ”
बेहद पशोपेश में पड़ जाता हूँ
याद ही नहीं रहता
कि किसलिये किया है फोन
याकि याद आ जाता है
कि बस फोन किया
पर कुछ कहने के लिए नहीं
कभी कुछ रहा ही नहीं ऐसा
जो कहा जा सके
फिर आखिर क्यूँ करता हूँ फोन
कुछ कहने या कुछ सुनने
न तुम कुछ कहती हो न मैं
फिर तुम कहती हो
हो गई बात तो रखूं
ठीक है — मैं कहता हूं
और तुम काट देती हो फोन
मैं कट जाने के बाद भी
बहुत देर तक लिए रहता फोन
शायद तुम भी लिए रहती होगी उधर
यूँ होती रहती हमारी बात
बिना बोले , बिना कुछ कहे
रोज ही
कभी ऊबे नहीं हम
बल्कि इंतजार करते रहते
एक दूसरे के फोन का
फूल कहाँ बोलते
ओस कहाँ करती बात
पहाड़ ,नदी , झरने
बादल , बारिश , इंद्रधनुष
और महक लिए हवा
ये कब कुछ कहते हमसे
पर क्या क्या नहीं कह जाते ?
कुछ कहने से नहीं
महसूसने से बनती है बात
रामस्वरूप दीक्षित

















