
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
कल तेरी महफ़िल में हम शामिल न थे।
यूॅं समझना बस तेरे क़ाबिल न थे।।
*
अपनी क़िस्मत में कहीं साहिल* न थे।
हम कभी आसूदा ए मंज़िल* न थे।।
*
मिल गईं मेहरूमियाॅं नाकामियाॅं।
ज़िदगी के और कुछ हासिल* न थे।।
*
अब कोई आशिक़ न थे मजनूॅं सिफ़त।
अब कोई सहरा* न था मेहमिल* न थे।।
*
जो बज़ाहिर* ख़ून के प्यासे रहे।
दर हक़ीक़त* वो मेरे क़ातिल न थे।।
*
आज भी हम मंज़िलों से दूर हैं।
जबकि अपने रास्ते मुश्किल न थे।।
*
जैसा जो भी होना था “अनवर” हुआ।
ज़िंदगी से हम मगर बददिल* न थे।।
*
साहिल*किनारा तट
आसूदा ए मंज़िल*आसानी से लक्ष्य प्राप्त करना
हासिल*प्राप्त होना
मजनू सिफ़त*मजनू जैसी विशेषता वाला
सहरा*रेगिस्तान
मेहमिल*ऊॅंट के ऊपर बैठने का हौदा
बज़ाहिर*सामने प्रत्यक्ष
दर हक़ीक़त*वास्तव में,
बददिल* दुखी,मलिन,
शकूर अनवर
9460851271