अपनें हिस्से की धूप

– माला सिन्हा-

mala sinha
माला सिन्हा

मेरे कमरे की खुली खिड़की से
छन कर आती
सुबह सबेरे की जिद्दी धूप
ज़िंदगी का हांथ थामे
मुस्कुराती हुई
कुछ देर को
टिक जाती है बिस्तर पर
मैं हो लेती हूँ उसके संग

अपनी मर्जी की है वह
उसे नहीं पसंद
कमरे में टिक कर रहना
उसे नहीं बांध सकती मैं
हर कैद से आजाद
खिड़की से निकल कर
फैल जाती वह
कमरे की बाहरी दीवारों पर

सुबह से दोपहर
एक तरफ से दूसरी तरफ
सीढ़ियां चढ़ती उतरती
उस छटपटाती धूप को
अल्हड़ बालिका की तरह
मचल कर चढ़ती देखा मैंने
पेड़ के पत्तों पर
जहां से उसकी छनती हुई किरणें
धरती पर सोने के सिक्के
बिखेर, खुश होतीं

उसको और भी कई
जरूरी काम करने होते
खेतों में गन्नें पकाती
तो कभी गेहूं की
बालियों पर बिछ जाती
कभी सरसों पर
अपनी चादर बिछा कर
जाड़े में दुलारी जाती
नाराज होती तो
अपने ताप का डंक मारती

सांझ ढलते ही
हांथ छुड़ा कर
जाना होगा उसे
करोड़ों मील दूर
अपने सूरज के पास
उसका ताप पिघल कर
हवा में घुल जाएगा
जीवन का राग छेड़ कर
धूप लौट जाएगी !!

– माला सिन्हा

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