-सुनीता करोथवाल-

धूप के साथ बाहर – भीतर होते हैं कपड़े
सारा दिन कभी हरा साग काटना
शाम थोड़ा समय मिला तो मटर छीलने बैठना
कभी बिस्तरों को तहाना
सारा दिन ठंडे और गर्म के बीच अटका रहता है दिन
आखिर एक वक्त तो झुंझलाहट होती ही है।
सर्द हवाएं पैर ठंडे करती हैं
बरतन मांजते उंगलियां अकड़ती हैं
मन तो करता है घर के आदमियों की तरह
आग जला कर घर के बाहर बैठ जाएं
हाथ सेंकते बुला लें राह चलती किसी ठिठुरती हम उम्र को
कि आ जा जिज्जी! बैठ जा ना थोड़ी देर
और बिना जान पहचान बातों की बीड़ी सुलगा लें
जोर से ठहाका मार कर हंसे किसी बात पर।
सहेलियां बढ़ती जाएं
और महफिल घिर जाए शाम के घने कोहरे की तरह
कोई गर्म चाय आए घर के भीतर से
कि बाहर औरतें बैठी हैं सर्दी में आग जलाकर।
सरसों के खेत पर छाए पीले रंग की बात करें
राजनीति की बात करें
किसी किताब और कविता की बात करें
बात करें यूँ ही सिर्फ अपने मन की
यही कि रात से मन में पीड़ा है सखी री
मन बहुत दुख रहा है
रो लें सुलगते धुएं के बहाने
हँस लें चटखती आग के बहाने।
ना चिंता हो कि गली में बैठी हैं
ना सोच समझकर बोलें कि कोई क्या कहेगा
बस ठहाका हो जो मन हल्का कर दे
एक आँच हो मन की सारी ठिठुरन खोल दे
एक उजाला हो हर औरत का चेहरा दमका दे।
एक अलाव तो औरतों के लिए भी होना चाहिए ना
घर के बाहर
जहाँ वे ठिठुरते हाथ ताप सकें
और पिंघला सके पैरों की बेड़ी।
-सुनीता करोथवाल
क्या लिखें आपकी कलम और उसके साथ चलती सोच के लिए।????????????????????