ओ दिन के मुसाफ़िर तू ज़रा शाम तो कर ले। आयेगा तेरी राह में फिर रात का जंगल।।

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शकूर अनवर

ग़ज़ल

-शकूर अनवर-

नफ़रत का कहीं क़हत*या बरसात का जंगल।
सरसब्ज़* बहुत है अभी हालात का जंगल।।
*
ओ दिन के मुसाफ़िर तू ज़रा शाम तो कर ले।
आयेगा तेरी राह में फिर रात का जंगल।।
*
कुछ देर तो मिल लें ग़मे-दुनिया को भुलाकर।
कुछ और हरा कर लें मुलाक़ात का जंगल।।
*
इस गुलशने हस्ती* में फ़क़तबुग्ज़ो-हसदका।
काटे से भी कटता नहीं दो हाथ का जंगल।।
*
कुछ ऐसी सियासत पे बहार आई है अबके।
उगने लगा ज़हनों में सवालात का जंगल।।
*
शहज़ादा निकलता नहीं परियों के महल से।
होता ही नहीं ख़त्म तिलिस्मात* का जंगल।।

लो सामने देखो वो सहर*होती नमूदार”।
लो ख़त्म हुआ देखिए ज़ुल्मात*का जंगल।।
*
इक वुसअते-अफ़कार* ज़रूरी है ग़ज़ल में।
हर शेर को लाज़िम* है ख़यालात*का जंगल।।
*
किस बात की बातें यहाँ बनती नहीं “अनवर”।
हर बात का सहरा* यहाँ हर बात का जंगल।।
*

क़हत*सूखा अकाल
सरसब्ज़*हरा भरा
गुलशने हस्ती*जीवन रूपी उपवन
फ़क़त*केवल
बुग़्ज़ो-हसद*द्वेष और ईर्ष्या
तिलिस्मात*जादुई
सहर* सुबह
नमूदार* प्रकट होना
ज़ुल्मात*अंधकार
वुसअते-अफ़कारचिन्तन का विस्तार

लाज़िम* ज़रूरी, आवश्यक
ख़यालात*यानी विचारों का
सहरा* रेगिस्तान

शकूर अनवर
9460851271

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