
कहानी-
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-डॉ.रामावतार सागर-

मंदिर की सीढिय़ों पर बैठै रामनारायण जी और मित्र सुभाष बतला रहे हैं।
इस अकेलेपन के साथ भी कब तक जिया जा सकता है सुभाष जी….. आखिर एकदिन तो बेटे-बहु के पास जाना ही पड़ेगा।गहरी साँस लेकर रामनारायण ने कहा।
हाँ भाई ! कह तो सच ही रहे हो।बुढ़ापे में सत्रह बीमारियां घर कर लेती है और फिर यहाँ है ही कौन देखभाल करने के लिए…. शहर में बेटे-बहु के साथ रहोगे तो बच्चों के साथ मन भी लगा रहेगा।सुभाष ने भारी मन से कहा
हालांकि सुभाष जी मन ही मन अपने मित्र से बिछड़ने के ख्याल से अनमने हो गये थे।फिर शाम को भारी मन से उन्होंने अपने मित्र रामनारायण को विदा भी किया।
दादाजी आ गये….. दादाजी आ गये उल्हास भरे शब्दों ने जब रामनारायण का स्वागत किया तो रामनारायण जी खुशी से भर उठे।पोते मनन और पोती मानवी को उन्होंने अपनी बाँहों में भर लिया।बहुत दिनों से उनको देखा नहीं था।बेटे और बहु के शहर आ जाने के बाद वे इस सुख से वंचित थे।जब तक पत्नी जीवित थी अपना कस्बा उनसे छोड़ा नहीं गया।जिस कस्बे में पेंतीस साल उन्होंने सरकारी स्कूल में नौकरी की और फिर वहीं गुजारे लायक घर बना लिया था, उसे छोड़ने की टीस उनके मन में थी।
बेटे सुकेश ने जब बी-टेक करने के बाद मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब शुरू कर दी तो धूमधाम से रामनारायण जी ने उसकी शादी कर दी थी।रिटायरमेंट के बाद 8-10 साल कैसे व्यतीत हो गए उन्हें पता ही नहीं चला लेकिन पिछले साल पत्नी के देहावसान के बाद अकेलेपन ने उन्हें घेर लिया था।कई बार बेटे के पास जाने की सोची लेकिन घर उनसे नहीं छूट रहा था।ढेर सारी यादें जो जुड़ी थी।
“दादाजी अब आप हमारे साथ ही रहोगे ना।”पोती मानवी के इस आग्रह ने उनको यादों के झरोखे से बाहर निकाला।
हाँ बेटा ! अब हम आपके साथ ही रहेंगे- कहते हुए रामनारायण जी ने एक बार फिर मानवी को अपनी गोद में उठा लिया।
इस तीन बेडरूम वाले फ्लैट के एक रूम में रामनारायण जी का दीवान सेट हो चुका था।दीवान पर लेटे हुए रामनारायण जी अपनी इस नयी पारी के बारे में सोच रहे थे कि शाम हो गयी।हाथ-मुँह धोकर बाहर निकले।सोचा कि चलो सोसायटी का भ्रमण ही कर लिया जाए।लिफ्ट से नीचे आये और सामने खड़े चौकीदार से मंदिर के लिए पूछा।चौकीदार के बताए रास्ते पर आगे बढ़ने पर सामने मंदिर देख भीतर चले गये।मंदिर में माथा टेककर बाहर बने पार्क की एक बेंच पर आ बैठे।सामने देखा तो मनन और मानवी हमउम्र बच्चों के साथ खेल रहे थे।दादाजी को देखकर दोनों दौड़कर पास आ गये।
दादाजी! अब आप हमारे साथ ही घर पर चलना-दोनों बच्चों ने एक साथ कहा।
ठीक है बच्चों, आप खेलो मैं यही बेंच पर बैठा हूँ-रामनारायण जी ने आश्वस्ति के स्वर में कहा।
थोड़ी देर में ही उनके हमउम्र लोग उनके पास आ बैठे।परिचय के बाद रामनारायण जी को पता चला कि वे भी अपने बच्चों के पास अपने गाँव-कस्बे छोड़कर यहाँ आ गए हैं।
देखिए रामनारायण जी! इतनी उच्च शिक्षा लेकर बच्चे गाँव-कस्बों में तो जॉब नहीं कर पाएंगे ना…..हमने भी नौकरी के लिए अपना गाँव छोड़ा था कि नहीं।अब बच्चे महानगरों में आ गये तो हमें भी उनके साथ रहने के लिए घर छोड़ना ही पड़ेगा या फिर पड़े रहो अकेले-एक सज्जन ने कहा
आप सही कह रहे हैं श्रीमान……जब हमीं ने अच्छे स्कूल-कॉलेजों में पढ़ा-लिखा कर इन्हें इस लायक बनाया है तो फिर इस नयी व्यवस्था को स्वीकार भी करना पड़ेगा- रामनारायण जी ने भीतर से आश्वस्त होते हुए कहा।
थोड़ी देर बाद रामनारायण जी मनन और मानवी का हाथ पकड़े अपने फ्लैट की ओर लौट रहे थे।रात को खाने के बाद रामनारायण जी ने अपने बेटे-बहु को बुलाया और कहा- बेटा सुकेश….मेरा जो कुछ भी है सब तुम्हारा ही है।मेरे मरने के बाद तुम कस्बे का घर बेचो इससे अच्छा है कि उसे अभी बेचकर तुम इस फ्लैट की किश्तों से मुक्ति पा लो। मैं नहीं चाहता कि तुम संकोच में रहो और किश्तों के बोझ तले दबे रहो।
रामनारायण जी अब सुकून की नींद ले रहे थे।
डॉ.रामावतार सागर
(सहायक आचार्य हिंदी, राजकीय कला महाविद्यालय, कोटा)
9414317171