काश हम बच्चे ही रहते…

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फोटो साभार संजय सैनी

-कृतिका शर्मा-

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कृतिका शर्मा

(अध्यापिका,एंकर एंड सेल्स एग्जीक्यूटिव इन अग्रीकल्चर)

*जब ज़िम्मेदारियों के बोझ तले सुकून से सांस लेने तक की फुर्सत नही मिलती ,तब लगता है कि काश हम बच्चे ही रहते।
*जब किसी को गलत करते देख शिकायत करने का मन करता है लेकिन कुछ कह नही पाते, तब लगता है कि काश हम बच्चे ही रहते।
*जब कोई अपना मन को ठेस पहुँचा जाता है और रोने का सा मन करता है ,पर बड़े हो गये है ये याद आता है, तब लगता है कि काश हम बच्चे ही रहते।
*शाम पड़े जब घर को आते है, कान ये सुनने को तरस जाते है कि आ गये बेटा,
तब लगता है कि काश हम बच्चे ही रहते।
*जब कभी डर सा लगता है और छुपने के लिए माँ का आँचल याद आता है ,तब लगता है काश हम बच्चे ही रहते।
*कभी सुख तो कभी दुख, तो कभी परेशानिया जब बांटने का मन करता है, ओर कोई पास नही होता ,तब लगता है काश हम बच्चे ही रहते।
*जब दुनिया की हकीकत से रूबरू हो कर वापस लौट जाने का मन हो , लेकिन जिम्मेदारिया लौटने नही देती, तब लगता है कि काश हम बच्चे ही रहते।
*जब कभी बच्चों को खेलते, हँसते, देखते है, तो अपना बचपन याद आता है,तब लगता है कि काश हम बच्चे ही रहते।
*कई बार मन मे यह प्रश्न सा उठता है कि इतना आगे आने की होड़ मे कितना कुछ पीछे छोड़ गये , तब लगता है कि काश हम बच्चे ही रहते।

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