
– विवेक कुमार मिश्र-

सुबह – सुबह चल पड़ने के लिए
कुछ नया करने के लिए
चाय एक जाग्रत पेय बन जाती है
कदम भी तभी आगे बढ़ते हैं
जब चाय का प्याला दीख जाता है
चाय जिह्वा पर आने से पहले ही
अपने रंग , स्वाद , महक से
मन पर तैर जाती है
बहुधा कवि जैसे लोग….
चाय को देखते देखते ही न जाने कितने अर्थ लगा लेते हैं
चाय ठंडी हो जाती
और कविता में गरम चाय पीने का प्लान करते रहते
यह दुनिया है यहां हर किसी को अपने ढ़ंग से पीने का मन होता है
किसी से यह थोड़े कह सकते कि
आप फीकी चाय पीजिए या मीठी पीजीए
अरे भाई ! जो जैसा स्वाद लेता
उसे वैसा ही लेने दें
यह क्या कम है कि चाय पी रहा है
चाय पीते आदमी को कम से कम
चाय तो पी लेने दें भाई !
– विवेक कुमार मिश्र
कवि – आलोचक
लेखक हिंदी के प्रोफेसर हैं