
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
ग़ुबारे-राह* हूॅं या नक़्शे-पा*हूँ।
मगर इसमें भी मंज़िल का पता हूंँ।।
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पढ़ो मुझको कि हूंँ तहरीरे-उल्फ़त*।
मुझे देखो में तस्वीरे-वफ़ा हूंँ।।
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मेरे अशआर में मख़्फ़ी* ज़माना।
मुझे सुन में ज़माने की सदा हूंँ।।
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हरीफ़े-शख़्सियत* कोई नहीं है।
मैं अपने आप से ही लड़ रहा हूंँ।।
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बचालूॅं या इसे ग़रक़ाब* कर दूॅं।
मैं अपनी ज़िंदगी का नाख़ुदा* हूंँ।।
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ये कैसा जज़्बा ए ज़ौक़े-तलब* है।
मैं क्यूँ मुड़-मुड़ के पीछे देखता हूंँ।।
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शिकस्ते-ज़िंदगी* का ग़म नहीं है।
मैं अपने आपमें इक कर्बला हूंँ।।
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वो मेरा कब भला चाहेंगे “अनवर”।
मैं उनके लब पे हर्फ़े-बद्दुआ हूंँ।।
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ग़ुबारे-राह* रास्ते धूल
नक़्शे-पा*पाॅंवों के निशान
तहरीरे-उल्फ़त*प्रेम की इबारत
मख़्फ़ी*छुपा हुआ
हरीफ़े शख़्सियत*व्यक्तित्व का दुश्मन
ग़रक़ाब*डुबोना
नाखुदा*मल्लाह
जज़्बा ए ज़ोक़े-तलब*देखने की इच्छा का भाव
शिकस्ते-ज़िन्दगी*ज़िंदगी की हार
हर्फे-बददुआ*श्राप के शब्द
शकूर अनवर
9460851271