यादें… हां मां! मेरी प्यारी मां!

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-मनु वाशिष्ठ-

manu vashishth
मनु वशिष्ठ

गर्म चाय में उठती भाप,
गुड़,अदरक, लौंग की महक,
खयाल मात्र से,
एक नशा सा छा जाता,
तुम्हारे रूई से मुलायम,
सफेद बादल से बाल,
पहाड़ों पर रुकी बारिश,
अलसाया सा सूरज,
कानों को चीरती हुई,
ठंडी तीखी हवा,
छाती में सांसों को,
जमा देने वाली ठंड,
खुश्की से फटे सुर्ख गाल,
पैरों में रेंगती चींटियां,
और सूजी हुई अंगुलियां,
सुबह दूध के लिए,
गाय का रंभाना, और
बरतनों की खटर पटर,
घर्र घर्र चक्की की आवाज,
कुछ खो आया था मैं!
गांव की वो सर्द सुबह,
गुनगुनाती भजन,
और घंटी की आवाज,
धुंधलाए चश्मे को साफ करतीं,
तेरी यादों का सिलसिला,
हां मां! मेरी प्यारी मां!
तुम हरदम मेरी सांसों में बसी हो।
मेरी सांसे, जो रह गई हैं,
गांव में, और मैं बसा हूं,
यहां इमारतों के बेजान शहर में।
__ मनु वाशिष्ठ कोटा जंक्शन राजस्थान

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