
ग़ज़ल
शकूर अनवर

क्यूॅं अधूरा है सफ़र तख़ईल* का।
मरहला* आये कोई तकमील* का।।
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ज़ह्न में ठंडक है गीली रेत की।
ऑंख में मंज़र है सूखी झील का।।
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दिन हुए फ़िरओन* को डूबे हुए।
आज भी बहता है पानी नील* का।।
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देखना कुछ दिन में ये बूढ़ा शजर*।
ले गिरेगा आशियाना* चील का।।
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और थोड़ी देर की बाक़ी है रात।
लो उजाला कम हुआ क़ंदील* का।।
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रंग तो बदले किसी के ख़ून से।
ज़ंग आलूदा* सलीबी कील का।।
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एक दिन मंज़िल उसे मिल जायेगी।
जिसकी नज़रों में है पत्थर मील का।।
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अब पतंगें और मत कटवाइए।
अब तो लड़िए पेच “अनवर” ढील का।।
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तख़ईल*विचार
मरहला* पड़ाव
तक मील* पूर्णता
फ़िरओन*एक ज़ालिम बादशाह का नाम
नील*मिश्र की एक नदी
शजर* पेड़
आशियाना* घोंसला
कंदील*लालटेन
ज़ंग आलूदा*जंग लगी हुई
शकूर अनवर
9460851271