
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
हुई सहर तो फ़लक से उतर गया सूरज।
हवेलियों की छतों पर बिखर गया सूरज।।
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हमें भी प्यास की शिद्दत से कर गया बे हाल।
हमारे सर पे भी होकर गुज़र गया सूरज।।
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ये कैसी ओट लगी अब्र* की चढ़े दिन में।
कहाॅं गया वो उजाला किधर गया सूरज।।
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है अब तो धूप दरख़्तों की ऊॅंची शाखों पर।
हमारे घर से तो कब का गुज़र गया सूरज।।
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ग़ुरूब* होना था हमको नई सहर के लिए।
उसी के साथ चले हम जिधर गया सूरज।।
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ये क्या कमाल है “अनवर” कि शाम होने पर।
हर एक शय* को ॲंधेरों से भर गया सूरज।।
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अब्र* बादल ग़ुरुब*यानी अस्त होना
नई सहर* नई सुबह
शय” वस्तु
शकूर अनवर