
-मधु मधुमन-

बचपन के वो मस्त ज़माने कितने अच्छे लगते थे
पास पड़ोस में रहने वाले भी सब अपने लगते थे
बेमतलब की बातें भी तब हमको ख़ुश कर देती थीं
छोटी छोटी ख़ुशियों पर भी घर में मेले लगते थे
टिमटिम करते तारे देख के अक्सर अचरज होता था
चाँद चकोरी के क़िस्से तब ख़ूब सुहाने लगते थे
कितने भोले होते थे तब बच्चों के मासूम से मन
राजा रानी परियों के सब क़िस्से सच्चे लगते थे
सारा आलम एक अजब सी मस्ती में भर जाता था
जब सावन में नीम की डाल पे झूले टँगने लगते थे
जाग उठा करते थे मन में कुछ एहसास रूहानी से
शाम सवेरे मंदिर में जब घंटे बजने लगते थे
एक अनोखी प्यार की खुश्बू भर जाती थी आँगन में
शाम को जब तंदूर पे साँझे चूल्हे जलने लगते थे
एक ही फूँक से दर्द हमारा ग़ायब कर देती थी माँ
दादी नानी के नुस्ख़े तब जादू जैसे लगते थे
सुख सुविधा के साधन चाहे कम थे ‘मधुमन ‘जीवन में
पर वो कमियों वाले दिन भी कितने प्यारे लगते थे