
समय से पार
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-रामस्वरुप दीक्षित-

प्रेम की झाड़ियों में
दुबके थे
हमारी यादों के खरगोश
जाते ही
झाड़ियों के करीब
वे निकलकर भागने लगे
यहाँ वहाँ
फिर बैठ गए
एक एक कर
एकदम करीब
वैसे ही
जैसे
जैसे कभी तुम बैठा करती थीं
मुझसे सटकर
और
हम ओढ़ लिया करते थे
चुप्पी की
एक मोटी सी चादर
उस चादर के बाहर
फुदकती थीं
न जाने कितनी गौरैयाँ
कुछ पास ही नाचते थे मोर
और एक सरसराहट
गुजर जाती थी चादर को छूती
हम उठते थे
थामे हुए एक दूसरे का हाथ
और चलने लगते थे
केवल चलने के लिए
कहीं जाने के लिए नहीं
हाथों के रास्ते
एक दूसरे में समाते
हम चले जाया करते थे
समय से पार
-रामस्वरुप दीक्षित