ब्रज क्षेत्र में फाल्गुन माह और होली का रंग उल्लास 

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-मनु वाशिष्ठ-

manu vashishth
मनु वशिष्ठ

*मत मारे रंगन की चोट रसिया, होरी में मेरे लग जाएगी।
*फागुन में जेठ कहे भाभी।

यह हंसी ठिठोली भी है और बहुत ही पुराने, ब्रज की होली के गीत भी हैं। यानि फागुन की मस्ती में देवर ही नहीं जेठ भी पीछे नहीं रहते। ब्रज में होली खेलने वाली हुरियारिन घूंघट में यह भी नहीं देखती कि उनके सामने जेठ, श्वसुर कौन हैं। होली की मस्ती में सारे गुनाह माफ। कई बार लड़के भी पीछे नहीं रहते, औरतों के कपड़े पहन घूंघट निकाल हुरियारनों से बचने का रास्ता निकाल लेते हैं। बसंती बयार चारों ओर हरीतिमा की चादर ओढ़ कर प्रकृति, तथा पीले पीले सरसों के फूलों से भरे खेत, कहीं-कहीं सुनहरी गेहूं की लहलहाती बालियां तथा पलाश के फूल होली के आगमन की सूचना के साथ स्वागत को तैयार होते हैं। ऐसा लगता है प्रभु ने धरती में प्राण फूंक दिए हों। प्रकृति खिल उठती है, मन न जाने कितने रंग बिखेर देती है। तथा फाल्गुनी बयार अपने गानों में उत्साह के रंग भर देती है। यह महीना वर्ष के भी अंत का प्रतीक है, क्योंकि इसके अगले दिन ही चैत्र माह शुरू हो जाता है। होली सामाजिक, धार्मिक तथा रंगों का दो दिन का त्यौहार है, गाय के गोबर की गूलरी बनाई जाती हैं। तथा पूर्णिमा के दिन गुजिया, मिठाई, नारियल, गुड़, अक्षत, रोली, सूत आदि से होली पूजन कर होलिका दहन में इन्हें (गूलरियों को) रखा जाता है। इसी अग्नि में गेहूं, जौ,चना, की बालियां भूनी जाती हैं। होलिका दहन के दिन सभी बुराइयों, वैमनस्य, ईर्ष्या, अहंकार एवं नकारात्मकता को जला दिया जाता है। बच्चे तो बस रंग और पकवानों (विशेष रूप से पारंपरिक मिठाई गुझिया, मठरी, बेसन के लड्डू, दही बड़े, चाट, कांजी,) की ओर से ध्यान ही नहीं हटाना चाहते। होलिका दहन के बाद सब गले मिलते हैं, बालियों के भुने दाने आदि का प्रसाद बांटते हैं, बड़ों के पैर छू कर आशीर्वाद लेते हैं, व साथियों से सारे द्वेष मिटाकर गले मिलते हैं। इसके दूसरे दिन रंगोत्सव का त्यौहार मनाया जाता है पूरे ब्रज प्रदेश में मथुरा, वृंदावन, बरसाना, गोकुल, दाऊ जी आदि में विशेष धूम रहती है। पूरे देश में होली, दो दिन का त्यौहार है, लेकिन ब्रज क्षेत्र में लगभग चालीस दिन तक तथा बलदाऊ जी में पैंतालीस दिनों, बसंत पंचमी से रंग पंचमी तक होली की धूम रहती है। देश भर में होली का यह उत्सव भिन्न भिन्न प्रकार की होली मनाकर किया जाता है। बरसाने की लट्ठमार होली तो जग प्रसिद्ध है। न जाने कितने रूपों में होली मनाई जाती है। ब्रज की होली, बरसाने की लट्ठमार होली, फूलों की होली, लड्डुओं की होली, बंगाल की ढ़ोल यात्रा, महाराष्ट्र की गुलाल, राजस्थान में आदिवासियों का भगोरिया, यूपी, बिहार का फगुआ, पहाड़ों की अपनी अलग तरह की शास्त्रीय संगीत की खड़ी होली और न जाने कितनी तरह से, अलग अलग प्रतीकात्मक होली देश विदेश में मनाई जाती है। लेकिन फिर भी ब्रज की होली का रंग निराला है। ब्रज क्षेत्र में अगर कोई तर्क की बात करे तो सुनने में आता है_ ज्ञानी, गुमानी, धनी जाओ रे ज्हां से, ज्हां तो राज है बावरे ठाकुर कौ। असल में फाल्गुन ब्रज क्षेत्र का मदनोत्सव और अनुराग पर्व है। और सब जगह की होरी, लेकिन ब्रज में दाऊजी का हुरंगा, बहुत प्रसिद्ध है_
कैसा यह देस निगोड़ा, जगत होरी ब्रज होरा।
मैं जमुनाजल भरन जात हों, देख बदन मेरा गोरा।
मोसों कहैं चलौ कुंजन में, तनक तनक से छोरा।
कैसा यह देस निगोड़ा, जगत होरी ब्रज होरा।
क्हा कहें बूढ़े,क्हा लोग लुगाई,एक ते एक ठिठोरा।
कैसा यह देस निगोड़ा,जगत होरी ब्रज होरा।।
पुरुषों को हुरियार तथा महिलाओं को हुरियारिन कहा जाता है। यहां बरसाने की हुरियारिनें राधा एवं उनकी सखि गोपियों का तथा नंद गांव के हुरियारे कृष्ण व उनके सखा ग्वालबालों का प्रतिनिधित्व करते हैं।बसंत पंचमी से लेकर होली तक बिहारी जी तथा सभी मंदिरों में रसिया, पदों का गायन मंदिर के सेवादारों द्वारा किया जाता है। होली निसंदेह जीवन में उत्साह एवं उमंग का त्यौहार है। बृज में पुरुष हुरियारे तथा नारियां हुरियारिनों के रूप में अपनी अपनी टोलियां बनाकर खेलने के लिए चल पड़ते हैं। चारों ओर से बस एक यही स्वर सुनाई पड़ता है _
1_आज बिरज में होली रे रसिया, होली रे रसिया बरजोरी रे रसिया आज बिरज में होरी रे रसिया।।
उड़त गुलाल लाल भए बदरा, केसर रंग में बोरी (डुबो दी) रे रसिया।
बाजत ताल मृदंग झांज ढप, और मंजीरन की जोरी (pair) रे रसिया।
फेंक गुलाल हाथ पिचकारी, मारत भर भर पिचकारी रे रसिया।
इत ते आये कुंवर कन्हैया, उत सौं कुंवरि किशोरी (राधारानी) रे रसिया।
नंद ग्राम के जुड़े हैं सखा सब, बरसाने की गोरी रे रसिया।
आज के दिन बृजबाला है सारा संकोच छोड़ अपने अद्भुत उत्साह के साथ हुरियारों (ग्वाल बालों) को चुनौती देती प्रतीत होती हैं।
2_होरी खेलूंगी, श्याम तोते नाय हारूं,
भर गड़ूआ (लोटा) रंग को डारूं।
होरी में तोय गोरी बनाऊं, रे लाला
उड़त गुलाल लाल भए बदरा,
पाग झगा (झबला कपड़े) तेरी फारूं रे लाला।।
बरसाने की गलियों में होली का उत्साह देखते ही बनता है। नववधुएं हों या प्रौढ़ा स्त्री स्वयं को राधा या गोपी के ही रूप में देखती हैं। एक और गीत में होली का वर्णन —–
3_आज है रही है रंगीली में होरी।
कौन गाम (गांव) के कृष्ण कन्हैया, लाला
कौन गाम की गोरी, आज है रही —–
नंदगांव के कृष्ण कन्हैया,
बरसाने की गोरी, आज है रही —-
कौन के हाथ कनक पिचकरा सोहे, लाला
कौन के हाथ कमौरी, आज है रही —-
कृष्ण के हाथ पिचकरा सोहे
राधाजू के हाथ कमौरी, आज है रही—
अयोध्या में भी राम और सीता होली खेल रहे हैं यह देख देवतागण भी फूल बरसा रहे हैं एक ओर राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न तो दूसरी ओर सीता माता अपनी बहन और सखियों के साथ होली खेल रही हैं। सभी गीत गा रहे हैं, थाली में गुलाल अबीर केसरिया रंग कुमकुम रख रहे हैं।
4_होली खेलें रघुवीरा,
अवध में होली खेलें रघुवीरा!
यह तो सिनेमा आदि में भी फिल्माया गया है।लेकिन अवध का एक और गीत __
5_खेलत रघुपति होरी हो, संगे जनक किसोरी,
राम,लखन,भरत,शत्रुघ्न उत जानकी सम गोरी।।
केसर रंग घोरी, खेलत रघुपति होरी __
राधाकृष्ण ब्रज में, रामसीता अयोध्या में, एक बानगी सदाशिव भोले एवं पार्वती की लीला भी देखें __
6_आज सदाशिव खेलत होरी,
जटाजूट में गंग विराजे, अंग में भस्म रमोरी।।
होली, हिन्दुओं का देशभर में मनाए जाने वाला उत्साह,उमंग, उल्लास का प्रमुख त्यौहार है। होली का यह पर्व भाईचारा, प्यार, सौहार्द बढ़ाने वाला है। लेकिन कई बार गलत मानसिकता वाले लोग अपनी कुंठित मानसिकता की आजमाइश में भी नहीं चूकते अतः ऐसे लोगों से बचकर रहना भी आवश्यक है।
होली सभी धर्म के लोग, सम्मान के साथ बिना कोई भेदभाव किए मनाते हैं। नजीर अकबराबादी की एक नज़्म देखिए _
1_नजीर होली का मौसम जो जग में आता है
वह ऐसा कौन है होली नहीं मनाता है
कोई तो रंग छिड़कता है कोई गाता है
जो खाली रहता है वह देखने को जाता है
जो ऐसा चाहो वह मिलता है यार होली में।
2_जब जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और ढफ के बोल खड़कते हों तब देख बहारें होली की।।
3_ इन्हीं की एक रचना पंजाबी में__
उम्मीद सीधी रख दिल विच खुशवक्ती और खुशहाली से।
ले रंग गुलाल असी आए हैं, इस बेले अबरू कज करना।
अब नाल असां दे हंस हंस के, तुसी खेलो होली वे सजना।।
__ मनु वाशिष्ठ, कोटा जंक्शन राजस्थान

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