
-डॉ अनिता वर्मा-

मानव मन के भीतर अनेक प्रकार से चिंतन मनन चलता रहता है विचारों का ज्वार कई बार उठता और थमता रहता है।परिवेश की घटनाएँ मन को विविध प्रकार से स्पंदित करती है ।संवेदन शील रचना कार जब संवेदना के साथ संपृक्त होकर परिवेश को देखता है तो बहुत कुछ उसकी आँखों के आगे जीवंत हो उठता है वही सब रचनाकार की कलम से आकारित हो उठता है।वैश्विक परिदृश्य बदला है ।इस परिवर्तन को युवा कवि किशन प्रणय ने अपनी दृष्टि से परखा और महसूस किया है।प्रस्तुत समीक्ष्य कृति ‘बरगद में भूत’ किशन प्रणय की दूसरी पुस्तक है जिसमें चेतना के स्तर पर कवि संभावनाओं के बीज रोपता है, कविताओं के साथ सामाजिक सरोकार के साथ जुड़कर जीवन की विसंगतियाँ ,अव्यवस्थाओं ,मानव मन का अंतर्द्वंद्व सब कुछ कविताओं में व्यक्त करता है। चिंतन के इस क्रम में ‘तिरस्कृत चाँद ‘एक प्रतीकात्मक कविता है जिसमें शुष्क होती संवेदना को कवि ने गहरे भाव के साथ महसूसते हुए लिखा है कि –”जाड़ों की किसी सुबह/करीब साढ़े छह या सात बजे /निहारता हूँ चाँद को /कितना तिरस्कृत दिखाई देता है /जैसे दुनिया को भान ही ना हो उसके होने का!”
‘लोकतंत्र एक यंत्र ‘कविता में लोकतंत्र में उपजी समस्याएं और उनसे जूझता मानव कवि की चेतना में आकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते दिखते हैं।रचनाधर्मिता पर बात करते हुए’ वे मर रहे हैं ‘
कवि कविता में कवियों का सत्य उजागर करने में नहीं झिझकते वे कहते हैं—“मर रहें है सैकड़ो लेखक कवि/
अपने लेखन ओ रचनाओं का बोझ लेकर /प्रतिदिन प्रतिक्षण/ औरों का दुःख दर्द लिखने में /अपनी प्रशंसाएं ढूंढने वाले ये लोग/ अपने स्वयं के दुःख का ही कब कारण बन गये ?/पता ही नहीं चला ।” ‘किताबों का कन्यादान ‘कटुयथार्थ को दर्शाती कविता है जिसमें एक लेख़क दूसरे लेखक की रचना के प्रति कैसा भाव रखते हैं यही व्यक्त हुआ है आज दूसरों की पुस्तक पाठन की घटती रूचि व पुस्तक की पीड़ा को शब्दबद्ध किया है जिस उद्देश्य को लेकर पुस्तक लिखी गई उस उद्देश्य की पूर्ति आवश्यक है ।पुस्तक लेखन की सार्थकता तब है जब वह पाठकों तक पहुंचे अद्भुत चिंतन मार्मिक व्यंजना पुस्तक पीड़ा के रूप में उजागर हुई है यही आज का सच भी है । यहाँ पुस्तक के दर्द को अभिव्यक्ति का मर्मस्पर्शी चित्रण कवि प्रणय ने किया है देखिये— “ये सारा लगाव/ उन हाथों में मुझसे जाता रहेगा/ वो हाथ मुझे ले जाकर रख देंगे /सजी धजी अलमारियों में /उन अनछुई किताबों के साथ/जो मुझसे पहले उन हाथों में गई थी ।’परिवेश से उपजी अंतस की पीड़ा रूपांतरण और निर्मम हत्या जैसी कविताओं में उभर आई है मानव मन का द्वंद्व कुछ न कर पाने की छटपटाहट सब कुछ यहाँ अनावृत हो गया है।कल्पना और यथार्थ के बीच झूलता मानव प्रवंचनाओं का शिकार मानव अत्यंत आहत है। कवि ने इन सबका अति सूक्ष्म निरूपण किया है।लेखन और तकनीक कविता में भाषा का सिमटता संसार ,संकुचित होते संवाद ,शुष्क होती भावों की गर्माहट ।इससे पूर्व भावों को जो कलम स्याही में डूब कर संवेदनाएं जीवंत हो उठती थी अब वो आधुनिक तकनीक से मिलकर लुप्त सा हो गया है।डिजिटल युग में तकनीक के पंखों पर भाषा उड़ान भर रही है फिर भी कुछ खो सा गया है—“नीरस भावों के संकेतों में /बस एक कुंजी दूर /छोटे बहुत छोटे हो रहे संवाद /अभिनन्दन ,शुभकामनाएं /शोक सन्देश /आदर्श पंक्तियों के भावहीन /मस्तिष्क के विचारों को/ संक्षिप्त किये/ संवेदनशून्यता के घोर जंगल में/”। संग्रह की समस्त कविताएँ नवीन सोच और ताजगी लिए हुए है।प्रत्येक कविता में एक महत सन्देश अन्तर्निहित है। वर्तमान परिवेश में व्याप्त समस्त विषयों से कवि अपनी दृष्टि से साक्षात्कार करता चलता है।’खिसकते पेड़ ‘में वृद्ध जन की समस्या को व्यक्त किया है।दरकते रिश्ते आंतरिक टूटन उससे उपजा एकाकीपन अपनों द्वारा नकार दिए वृद्ध जो अपनों की राह तक रहे है वृद्धआश्रमों में उनसे मिलने बात करने की किसी को फुर्सत नहीं है।अपनों से अपनापन तलाशते ये अशक्त बुजुर्ग किसे अपना दर्द सुनाए इसे कवि ने बूढ़े पेड़ के माध्यम से अभिव्यक्ति दी है, देखिये-
“छाया देने में रत हैं /अथक /भौतिक सुख सुविधाएँ/ जिन्हें समय नहीं कि /रूके इन वृद्धों के आश्रमों में /बिताएं क्षण भर/ सुने दुःख दर्द।” एक अन्य कविता स्वछंदता में आधुनिकता और अनुशासन में जकड़े मानव की छटपटाहट व्यक्त हुई है जो अपनी स्वाभाविकता खो बैठा है।आधुनिकता की चकाचोंध ने उसे बांध दिया है वह तड़फड़ा रहा है।जीवन की इस नीरसता से उपजा उबाऊपन जीवन की गति को बाधित करता है ।जीवन में उत्साह उमंग के लिए असीम रोमांच ओर जीवंतता बनी रहे जिससे नीरसता समाप्त हो जाये।ऐसी कामना कवि के अंतर्मन में बसी हुई प्रतीत होती है। पर्यावरण की चिंता भी कवि के चिंतन में है ‘खोखली फसलें’ में रासायनिक खाद से फसल के तेजी से बढ़ने की गति, स्वास्थ्य से खिलवाड़ की ओर संकेत करते हुए कहते है कि विकास और तकनीक के साथ आज रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग किया जा रहा है और जहरीली फसलें तैयार करके जो दर्प से सिर ऊँचा किये हुए हैं वे सब मानवता के दुश्मन है।देखिये— ‘ये फसलें है /या फसलों के बनाये खाके /हो जो बनाये हो रसायन के/उत्कृष्ट प्रयोग से/ दक्ष शिल्पी ने तोड़ अनुबंध /प्रकृति से उच्श्रृंखलता लिए/ स्वार्थ की विकास की /रोपे गये हो कृत्रिम बीज/ घुसेड़ी गई हो सुइयां /अंकुरों में। ” आधुनिक शिक्षा में मशीनीकृत होते बालमन, घुट्टियों के रूप में पिलाये शिक्षा के पुराने फार्मूले, नीरस पाठ्यक्रम ,यांत्रिक होते बच्चे रटने की प्रवृति सब में परिवर्तन की चाहत रखते है।यांत्रिक वातावरण ऊँघते संवाद में वे जीवंतता तलाशते है।इसलिए वे कहते है -“कम्प्यूटर नहीं/ फसलें उगाना चाहता हूँ /अनमनेपन को अपनापन दिखाना चाहता हूँ /ऊंघती बातों पर में खिलखिलाना चाहता हूँ ।।” समस्त कविताओं में चिंतन का अजस्र प्रवाह है कही ऐतिहासिक सन्दर्भ है तो कही सामाजिक सरोकार के मुद्दे सब पर कवि की दृष्टि गई है।सार्थक जीवन में जीवन के मायने तलाशता युवा कवि मन बहुत कुछ सोचने को विवश कर देता है ।संग्रह के नवीन विषय ,चिन्तन की नवीन दृष्टि ,कम शब्दों में बहुत कुछ कह देने की प्रबल उत्कन्ठा हमें दिखाई देती है।’शहरों का छल, जिजीविषा, प्राणवायु, मनुष्य का विश्वास, विद्रोह ,जैसी कविताओं जीवन संघर्ष अव्यवस्था के प्रति आक्रोश ,विसंगतियाँ ,अन्तर्द्वन्द्व के बीच कवि बहुत कुछ कहता है। जीवन में आश्वस्ति का स्वर तलाशता कवि कहता है–“मानव के भीतर जलती एक उजास हूँ/ कभी जमे पर्वतों पर/ कभी गहरे वनों में /कभी धधकते रन में /जीवन जीने की आस हूँ /मैं मनुष्य का विश्वास हूँ।” संग्रह की शीर्षक कविता बरगद में भूत अत्यंत प्रभावी कविता है जो पढ़ने की उत्सुकता जागृत करता है। ‘बरगद में भूत’ कविता में तीन पीढ़ियों के अनुभव है यहाँ बाबा नागार्जुन का सहज स्मरण हो उठता है।-
“मैं जब गाँव जाता/ तो घंटों बरगद की जड़ों पर /उछल कूद करता /और दादा के दिए /सभी बिम्बों को जीता /अब दादा अस्सी बरस के है/ और उनके दादा नब्बे बरस के रहे /तीन अर्द्ध शताब्दियों से अधिक समय/अब पता चला बरगद के पेड़ों में /भूत क्यों रहता।।।” संवेदनाओं के बादल ,संवेदनाओं की मृत्यु, संवेदना, कविताओं शीर्षक की कविताओं में युवा कवि अपनी गहन संवेदनाओं से उपजी अंतस की पीड़ा दर्द और चिंता को प्रस्तुत करता है।संवेदना ही सृजन का आधार बनती है जितनी गहरी संवेदना या भावानुभूति होगी रचना उतनी ही प्रभावी होती हैजो सीधे पाठकों तक पहुँचती है।शुष्क होती संवेदना और संवेदनाओं की हो रही मृत्यु के साथ कवि कहता है–“इस मुश्किल घड़ी में /आँख का काला सा बादल/ सूखता ही जा रहा है /भीग जाने दो /पपडियां निकलने से पहले /ह्रदय का यह ऊपरी तल/ समा जाने दो/नसों में रक्त के कण की तरह /संवेदनाओं का यह बादल “। कवि किशन प्रणय ने बरगद में भूत काव्य संग्रह की विविध कविताओं में अपनी अनुभूतियों को अपनी दृष्टि से परखते हुए शब्दबद्ध किया है।कवि की अनुभूतियों का अपना संसार है जिसे उन्होंने अपने परिवेश के साथ साक्षात्कार करते हुए एकत्र किया है।प्रत्येक कविता अपने भीतर एक विशिष्ट सन्देश समाहित किए हुए है।इसी क्रम में ‘दिखाई देती ध्वनियां’,टूटे सपनों की सड़क, ‘खालिस खबर, ‘निर्दोष गांव, ‘वह नाबालिग ,’जैसी कविताएं संवेदनाओं के स्पंदन के साथ पाठकों के भीतर अपना स्थान बनाएंगी उन्हें प्रभावित करेंगी ऐसा मेरा विश्वास है।ऊर्जा उत्साह से भरपूर ये कविताएँ नवचिंतन और परिवेश से जुड़ाव की कविताएँ है जहाँ कहीं भी जीवन की गति ,लय ,ताल में विचलन दिखाई दिया वहीं कवि ने अपनी अनुभूतियों के संसार को काव्यात्मक रूप में शब्दबद्ध किया है।निश्चित रूप से संग्रह की कविताएं विषय वैविध्य के साथ साथ नवीन दृष्टि भी विकसित करती हुई यह सन्देश देती है ‘ऐसा क्यों नहीं हो सकता?’ ऐसा हम क्यों नहीं सोच सकते? आदि। शहर गांव मानव मन परिवेश प्रकृति जंगल आदि की सैर करता कवि मन
विभिन्न दृष्टिकोण से सोचता है, मंथन करता है। कविताओं की भाषा सहज सरल और प्रभावी है।नवीन कलेवर से सजी ये रचनाएँ ताजी हवा के झोखे सा अहसास कराती है।नवीन विषय, नवीन चिंतन, नवीन दृष्टि से युक्त इन कविताओं में सार्थक अभिव्यक्ति सामर्थ्य भी है।सामजिक सरोकार से पूरित अपने उद्देश्य को पूर्ण करती ये कविताएँ अत्यंत प्रभावी है।शीर्षक बोलते हुए से प्रतीत होते है संवाद करते प्रतीत होते हैं।’बरगद में भूत ‘काव्य संग्रह निश्चित रूप से हिन्दी साहित्य को अपनी संवेदना की गहराई से समृद्ध करेगी ऐसी मेरी कामना है।
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डॉ अनिता वर्मा
संस्कृति विकास कॉलोनी- 3
कोटा (राजस्थान )
9351350787
पुस्तक: बरगद में भूत
लेखक:किशन ‘प्रणय
प्रकाशक:संज्ञान( थिंक टैंक बुक्स का उपक्रम)
मूल्य:165 रूपये