
ग़ज़ल
शकूर अनवर
अबतो वो गोशा-नशीं* हैं दिल की दुनिया छोड़कर।
वर्ना हम मिलते रहे हैं हफ़्ता-अशरा* छोड़कर।।
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घर सियासत दोस्त दुश्मन जुज़-तमाशा*कुछ नहीं।
बस गया जंगल में मजनूॅं ये तमाशा छोड़कर।।
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उड़ सकेंगे क्या परिंदे जब न होगा आसमाॅं।
जी सकेंगी मछलियाँ क्या अपना दरिया छोड़कर।।
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और भी अहले-जुनू थे और भी थे होशमंद।
हम ही बस लहरों से टकराये किनारा छोड़कर।।
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अच्छी ख़ासी ज़िंदगी थी अच्छा ख़ासा नाम था।
जाने क्यूँ शायर हुआ वो अपना रुतबा* छोड़कर।
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अब यहाँ शहरों में ऐसी बेरुख़ी* तो आम है।
आपसे किसने कहा था आओ सहरा* छोड़कर।।
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हो जहाँ चम्बल सा दरिया और हों वैसे ही लोग।
कौन जाये फिर कोई “अनवर” ये कोटा छोड़कर।।
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गोशा-नशी* एकांत में रहना
हफ़्ता-अशरा*आठ दस दिन
जुज़-तमाशा*तमाशे के सिवा
अहले-जुनू*दीवाने
होशमंद* समझदार लोग
रुतबा* नाम शोहरत स्टेटस
बेरुखी*रूखापन
सहरा*रेगिस्तान
शकूर अनवर
9460851271