ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
मुहब्बत में भरोसा चाहिये था।
मुझे कुछ और झुकना चाहिये था।।
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उमीदों का सवेरा चाहिये था।।
नया सूरज निकलना चाहिये था।।
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मेरी ऑंखों में रखदी तुमने दुनिया।
मेरी ऑंखों को सपना चाहिये था।।
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उधर इक जादा ए दारो-रसन* है।
उसी रस्ते पे चलना चाहिये था।।
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तुम्हारी मंज़िलें ख़ुद पाॅंव छूतीं।।
सफ़र में बस इरादा चाहिये था।
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अगर सर भी चला जाता तो जाता।
हमें हुर्मत* बचाना चाहिये था।।
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लो हमने जान दे दी उस गली में।
मुहब्बत को तमाशा चाहिये था।।
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वो मेरे हौसले से हार बैठी।
हवा को रुख़ बदलना चाहिये था।।
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यही थी इश्क़ की मेराज* “अनवर”।
हमें जाॅं से गुज़रना चाहिये था।।
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जादा ए दारो रसन*सूली की तरफ़ जाने वाला छोटा रास्ता पगडंडी
हुर्मत*इज़्ज़त आबरू
मेराज*पराकाष्ठा
शकूर अनवर
9460851271