
डॉ. पीएस विजयराघवन
(लेखक और तमिलनाडु के वरिष्ठ पत्रकार और संपादक)
कुंभकोणम के निकट तिरुनारायूर स्थित नाचीयार मंदिर जिसे तिरुनारायूर नम्बी मंदिर भी कहा जाता है कल्ल गरुडन (पाषाण) के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर दिव्यक्षेत्रों में शामिल है जिसका अस्तित्व भी करीब दो हजार साल पुराना माना जाता है। भगवान विष्णु और लक्ष्मी को समर्पित इस मंदिर का निर्माण द्रविड़ शिल्पकारी पर आधारित है। विष्णु यहां श्रीनिवास भगवान और लक्ष्मी नाचीयार के रूप में आराध्य हैं। मान्यता है कि भगवान विष्णु ने यहां वैष्णव संत तिरुमंगै आलवार का पंच संस्कार (शंक-चक्र लगाकर दीक्षा देना) किया।
संरचना व शैली
मंदिर का निर्माण भी चोलकालीन है। चोल शासक कोचेंगट चोलन ने तीसरी सदी में इसे बनवाया। मूल मंदिर के आकार और आयाम में उत्तरोतर परिवर्तन हुआ। खासकर मध्यकालीन चोल शासकों व विजय नगर के राजाओं ने मंदिर के विस्तार में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। मंदिर की चारदीवारी काफी मजबूत और विशाल है।
मंदिर का पांच मंजिला राजगोपुरम है और इसका प्रशासन राज्य सरकार के देवस्थान विभाग के पास है। मंदिर के दक्षिणी छोर पर बिल्व वृक्ष है। यह वृक्ष भी मंदिर के शुरुआती समय का माना जाता है। इसके पास ही वसंत मण्डप है जहां वसंतोत्सव का आयोजन मई-जून महीने में होता है। भगवान का विवाहोत्सव 100 खम्भों वाले मण्डप में सितम्बर-अक्टूबर महीने में आयोजित किया जाता है। उत्तरी छोर पर भगवान राम, लक्ष्मण, सीता व हनुमान के विग्रह वाली सन्निधि हैं।
यहां सुदर्शन भगवान और नरसिंह भगवान की मूर्तियां हैं। जनश्रुति के अनुसार इनकी प्रतिष्ठा मुनि मेधावी ने की थी। परिसर के पहले गलियारे में मनवाल मुनि और स्वामी वेदांत देशिकन की उत्सव मूर्तियां हैं। गर्भगृह में दर्शन के लिए २१ सीढियां चढनी होती है।
भगवान विष्णु नारायूर नम्बी के रूप में आराध्य हैं। देवी नाचीयार को वंचुलवल्ली और नील देवी नाचीयार के नाम से भी जाना जाता है। विष्णु के अन्य मंदिरों की तुलना में इस मंदिर की महत्ता इस वजह से है कि यहां भगवान की जगह लक्ष्मी की प्रमुखता अधिक है। गर्भगृह में ब्रह्मा, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, शंकर्षणा, पुरुषोत्तमन व अन्य देवगणों की छवियां हैं। ये सभी भगवान विष्णु के विवाह के साक्ष्य बने।
पाषाण गरुड़
इस मंदिर की लोकप्रियता व प्रसिद्धि पाषाण गरुड़ की मूर्ति से है जिस पर भगवान की सवारी निकलती है। स्थल पुराण के अनुसार गरुड़ की मूर्ति का निर्माण करने वाला शिल्पकार पक्षी को देखकर जब भी कारीगरी शुरू करता वे उड़ जाते। उसने परेशान होकर एक पत्थर इन पक्षियों की ओर फेंका। यह पत्थर गरुड़ को जाकर लगा। चोटिल गरुड़ ने तय किया कि वे मंदिर में कल्ल (पाषाण) गरुड़ के रूप में बसेंगे।
यह मूर्ति सालीग्राम से बनी है और गर्भगृह के बाहर स्थित है। तमिल माह मार्गझी व पंगुुणी में उत्सव के दौरान भगवान की उत्सव मूर्ति की सवारी गरुड़ की मूर्ति पर निकलती है। कहा जाता है कि सन्निधि से बाहर लाते वक्त विग्रह को उठाने के लिए चार लोग काफी होते हैं। बाद में जैसे-जैसे विग्रह को आगे का सफर तय करती है इसे उठाने वालों की संख्या 8, 16, 32, 64 व 128 तक हो जाती है।
इसी तरह वापसी में यह संख्या उसी क्रम में कम होती चली जाती है। कहने का आशय है कि विग्रह का वजन स्वतरू घटता-बढ़ता है।
भगवान ने मुनि पुत्री से रचाया विवाह
पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु यहां मेधावी मुनि के समक्ष प्रकट हुए। इस मंदिर में भगवान ने मुनि की पुत्री से विवाह रचाया। इस परिणय वेला के साक्ष्य भगवान ब्रह्मा और अन्य देवगण बने।
मुनि ने यहां तपस्या की और उनको नदी में सुदर्शन भगवान की मूर्ति मिली जिसके पृष्ठ भाग में योग नरसिंहर की छवि थी। मूर्ति के मिलते ही देववाणी गूंजी कि वे इसे यहां प्रतिष्ठित कर पूजा करें। इस वजह से मुनि के घर लक्ष्मी ने जन्म लिया जिसका भगवान विष्णु ने अंगीकार किया।
मुनि के आग्रह पर भगवान लक्ष्मी के साथ यहां स्थापित हो गए। यहां भी नैत्यिक छह अनुष्ठान होतेे हैं और साल में चार उत्सवों का आयोजन होता है।
पौराणिक वर्णन
छठी सदी के आलवार संतों ने अपने भक्ति कार्य में इस मंदिर और भगवान की स्तुति की है। इस मंदिर का वर्णन नालायर दिव्य प्रबंधम में मिलता है। तिरुमंगै आलवार जिनको भगवान ने यहां दीक्षा दी ने इस मंदिर पर १०० काव्य लिखे। दूसरा ऐसा मंदिर तिरुकण्णपुरम के नीलमेघ भगवान का है जिस पर तिरुमंगै आलवार ने सौ से ज्यादा काव्योक्तियां लिखीं। वे मंदिर में प्रतिष्ठित श्रीनिवास भगवान की तुलना तिरुपति के वेंकटेश्वर भगवान से करते हैं। इस मंदिर को सिद्धि क्षेत्र भी माना जाता है। वैष्णव सम्प्रदाय में कांचीपुरम के वरदराज को अत्तिगिरि, तिरुपति को शेषगिरि और तिरुनरैयूर को सुगंधगिरि कहा गया है।
(डॉ. पीएस विजयराघवन की आस्था के बत्तीस देवालय पुस्तक से साभार)