
– विवेक कुमार मिश्र-
धन का भाव जीवन का मूल भाव होता है । जीवन को गति प्रदान करने के लिए धन की जरूरत होती है पर यह धन भी एक सीमा तक ही चलता है। धन के साथ मन का भाव और धन किस तरह हमारे पास आ रहा है यह बहुत महत्वपूर्ण होता है । यदि धन कर्म के साथ जुड़ कर सहज गति से आता है और हमारी उपलब्धि और पवित्र साधन से आता है तो कम से कम धन भी हमारी खुशियों को रचता है । धन बाहर की खुशियों को रचता है पर आंतरिक खुशियों को तो मन का भाव ही रचता है।

धन के लिए भागने की जरूरत नहीं वल्कि हमारा जो सहज कर्म है उसे करते जाते हुए धन जो आता है वहीं रचता है खुशी का संसार । जीवन सुख समृद्धि का संवाद तब हो जाता है जब हम धन के प्रति आग्रह की जगह अपने कार्य को पूर्ण मन मन से करते जाते हैं तो धन जीवन और मन को रचता व रंगता है। धन की भूख की जगह धन को सहज रूप से स्वीकार का भाव होना चाहिए। यह भाव आंतरिक मन को समृद्ध करता है। पर्व त्यौहार खुशियां जीवंतता प्रदान करते । क्या अमीर क्या गरीब इनका हर्ष उल्लास और जीवन के प्रति राग देखना हो तो हमें जीवंत संसार में …बाजार , मेले , और पूरे रास्ते पर पटे हुए आम आदमी के बाजार चहल पहल को देखना चाहिए । हाथ में खनकते धन से कहीं ज्यादा हमारी इच्छाओं का धन होता है जो इन दिनों गृहणियां बाजार और घर के बीच जीवंत संवाद करते हुए बाजार को तो संबल प्रदान ही कर रही हैं और घर की चमक भी रच रही है और इन सबके साथ कहीं न कहीं मन भी उल्लसित होता है । बाकी तो पुरुष पीठ की तरह होता है जिसे किसी तरह की जरूरत महसूस नहीं होती है। पर जब पेट की बात आती है तो इच्छाएं , हर्ष , उल्लास के साथ जीवन से संवाद करती हैं ।जीवन से सहज संवाद करते हुए धनतेरस का पर्व अलग ढ़ंग से हमारे जीवन संसार में खुशियां रचता है । घर से बाजार तक यह जो चहल पहल दिख रही है वह निश्चित ही रचती है खुशियां , उल्लास और जीवन का रंग जिसके साथ पूरा संसार ही चला जा रहा है । ऐसे में भौतिक धन का अभाव भी मन के भाव के आगे फीका पड़ जाता है ।