-राहुल सांकृत्यायन-
भारतीय संवत परम्परा के अनुसार यह समय जेठ या ज्येष्ठ मास के आरंभिक काल का है । पर हम लखनऊ या यूं कहा जाए कि अवध क्षेत्र के लिए आज बड़ा मंगल है । यह हमारे शहर लखनऊ का एक बड़ा पर्व है । यदि परम्परा को गहराई से भी देखा जाए तो हम पाते हैं कि सम्भवतः बैसाख के बाद उत्तर भारतीय जन जीवन में आषाढ़ी से पूर्व और कोई पर्व या उत्सव नहीं मनाया जाता है । कारण कि यह समय गरमी के मौसम के अपने चरम पर होने का है और जैसा कि महाकवि घाघ ने अपने बारहमासा में कहा है
जेठे पंथ आषाढ़ बेल
शायद यही कारण है कि इन दो महीनों में कोई भी पर्व , उत्सव या मेला नहीं आयोजित होता है ।
पर हम लखनऊ वाले जो हर समय जीवन को उत्सव के रूप में मनाने में विश्वास रखते हैं , इस गरम और असह्य मौसम में भी जीवन का उत्सव खोजते हैं । इसी कारण संपूर्ण जेठ मास के हर मंगल को लखनऊ महाबली हनुमान की पूजा का उत्सव मनाता है ।
यह विचारणीय है कि क्या यह महज संयोग है कि जब मौसम अपने सबसे विकट रूप में होता है तब हम लखनऊ वाले भारतीय संस्कृति में शक्ति के सबसे बड़े प्रतीक महाबली हनुमान की आराधना करते हैं और वह भी उनके महाबली रूप की नहीं बल्कि उनके सेवक रूप की । ध्यातव्य है कि महाबली के दो रूपों की पूजा उनके भक्त करते हैं
एक रूप लंका जारि असुर संहारे ।
और दूसरा रूप,
राम दूत मैं मातु जानकी । वाले सेवक हनुमान महाप्रभु का ।
जो लोग लखनऊ की इस खासियत से नावाकिफ हैं उनको आज के दिन इस शहर को जरूर घूमना चाहिए । आप यदि आज हमारे शहर लखनऊ से होकर गुजरेंगे, तो पाएंगे कि थोड़ी थोड़ी दूर पर आज पूरे शहर में सैकड़ों भंडारे , जल सेवाएं और प्रसाद वितरण सेवाएं सुबह से शाम तक अनवरत चलती हैं । कहा जाता है कि बड़े मंगल पर इस शहर में कोई उठता भले ही भूखा हो पर सोता हमेशा भरे पेट ही है । आज इस गर्म चिलचिलाती धूप में भी यह शहर दिन भर चलते मेलों और भंडारों से जगमगाता रहता है ।
एक और विशेषता इस महापर्व की यह भी है कि अन्य भारतीय पर्वों , उत्सवों या त्योहारों से भिन्न हमारे शहर के इस महापर्व की का प्रारम्भ अवध के नवाब शुजाउद्दौला के द्वारा किया गया था । कहते हैं कि लखनऊ के अलीगंज में एक बेहद प्राचीन हनुमान मंदिर है । जानकार और साहित्यिक स्रोत इसकी स्थापना रामायण कालीन बताते हैं । इस दृष्टि से यह शहर का सबसे प्राचीन मंदिर कहा जा सकता है । जनश्रुति है कि जब लक्ष्मण जी माँ सीता को वाल्मीकि आश्रम छोड़ने जा रहे थे तो हनुमान जी उनसे नाराज हो गए । यह नाराजगी इतनी बढ़ी कि हनुमान जी ने लक्ष्मणपुरी ( लखनऊ) को छोड़ने का निर्णय ले लिया और छलांग मार कर गोमती के उस पार जा कर बैठ गए । जिस जगह वे गए वहीं आज अलीगंज का पुराना हनुमान मंदिर है ।
फैज़ाबाद से अवध आ चुके, अवध के नवाब शुजाउद्दौला के कोई वारिस नहीं था । उनकी बेगम छत्र कुंवर उर्फ मलिका आलिया को एक रात हनुमान जी का स्वप्न हुआ । उन्ही ने मलिका आलिया को बताया कि इस तालाब ( अलीगंज में स्थित बेहद प्राचीन हनुमान मंदिर के प्रांगण में स्थित तालाब ) में हनुमान जी की एक मूर्ति है । स्वप्न में हनुमान जी ने उन्हें आदेश दिया कि उसकी स्थापना करो । पुत्र प्राप्त होगा ।
मलिका आलिया ने स्वप्न की जानकारी अपने पति को दी । तालाब की खुदाई हुई और मूर्ति निकली । एक हाथी पर रख कर मूर्ति को ले जा रहे थे कि राह में एक जगह हाथी बैठ गया और फिर हर प्रयास किये गए पर हाथी टस से मस न हुआ । हार कर इसी स्थान पर हनुमान जी की प्राण प्रतिष्ठा की गई । आजकल यह स्थान अलीगंज का नया हनुमान मंदिर कहलाता है ।
हनुमान जी की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा हुई और हनुमान जी ने प्रसाद भी दिया । बेगम साहिबा के घर जेठ के पहले मंगल को मिर्जा मंगलू का जन्म हुआ । बड़े होकर यही मिर्जा मंगलू आसफुद्दौला के नाम से अवध के सबसे मशहूर और काबिल नवाब शासक हुए ।
मिर्जा मंगलू के जन्म ने उनके पिता नवाब शुजाउद्दौला को बजरंग बली का भक्त बना दिया । नंगे पांव चल कर नवाब न सिर्फ पुराने वाले हनुमान मंदिर में जाकर मत्था टेकने पहुंचे बल्कि उस बेहद पुराने मन्दिर का जीर्णोद्धार भी कराया और नए मन्दिर का भव्य निर्माण भी कराया । साथ ही उन्होंने आदेश भी दिया कि जेठ माह के पहले मंगल पर हर साल पैनी की सलीब/प्याऊ लगाई जाए और मिठाईयां बांटी जाएं ।
तब से शुरू हुआ यह बड़ा मंगल का उत्सव आज तक न सिर्फ चलता ही आ रहा है बल्कि इसकी भव्यता और प्रकृति में निरंतर वृद्धि होती जा रही है ।
संपूर्ण भारत में सम्भवतः यही एकमात्र शहर है जहाँ एक अन्य मतावलंबी शासक के द्वारा एक ऐसे पर्व का शुभारंभ किया गया जो न सिर्फ पिछले लगभग 250 वर्षों से अनवरत धूमधाम से मनाया जा रहा है बल्कि इसके वर्तमान स्वरूप की प्रेरणा भी इस्लाम की सबील परंपरा से ली गयी है और आज भी इस उत्सव में सभी धर्मों के लोग मिल जुल कर भाग लेते हैं ।
एक समाज के रूप में लखनऊ का यह महापर्व न सिर्फ हिन्दू मुस्लिम एकता के संबंधों का एक उत्तम उदाहरण है बल्कि अपने आप में भारतीय संस्कृति की उस वसुधैव कुटुंबकम की परंपरा का एक जीता जागता उदाहरण भी है जिसने हमारे देश को विश्व संस्कृति में सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित किया है ।
मेरे बचपन मे यह आयोजन मात्र जेठ के पहले मंगल तक सीमित था और शीतल जल के साथ बताशे, नुक्ती, बूंदी या छोटे छोटे बेसन के लड्डू ही बंटते थे और वह भी सीमित संख्या में……. पर विगत कुछ वर्षों या कह सकते हैं कि 90 के दशक के उदारीकरण के बाद से इस परंपरा में पर्याप्त वृद्धि एवं परिवर्तन दिखने लगा है । उदारीकरण के चलते समाज की मौलिक खाद्य आदतों में आया परिवर्तन अब यहां भी देखा जा सकता है । परंपरागत भंडारे की कद्दू पूड़ी, बेसन के लड्डू, बूंदी नुक्ती और शर्बत तो जारी है पर बताशे लगभग पूरी तरह से गायब हो चुके हैं और लड्डू , नुक्ती या बूंदी भी अपेक्षाकृत सीमित हो चुकी है । शर्बत का स्थान कहीं कहीं फ्रूटी, कोल्ड ड्रिंक, आइसक्रीम या दूधिया लस्सी ने ले लिया है, जबकि नुक्ती और लड्डू की गद्दी चाउमीन, मैगी, नूडल्स, पानी के बताशे और अन्य पापुलर स्ट्रीट फूड्स द्वारा कब्जा ली गयी है। कद्दू पूड़ी के अगल बगल अब छोला चावल, कढ़ी चावल और छोले पूड़ी की कुर्सियां भी लगने लगी हैं और कहीं कहीं RO water की व्यवस्था भी दिखने लगी है ।
एक और क्षेत्र जहां यह बदलाव दिखता है कि पहले यह उत्सव मात्र जेठ के पहले मंगल को ही मनाया जाता था पर अब यह जेठ के हर मंगल पर उसी उत्साह से मनाया जाता है बल्कि पिछले कुछ वर्ष से कुछ स्थानों पर तो कुछ धर्मपरायण दानदाता पूरे माह दोनों समय भंडारे का आयोजन करते मिलते हैं । हजरतगंज के बेगम हज़रतमहल पार्क के बाहर पूरे जेठ माह लगने वाला भंडारा इसका एक उदारण है ।
एक अन्य क्षेत्र जहां बदलाव देखा जा सकता है वह भक्ति परंपरा का है । न केवल भक्तों की संख्या ही बढ़ी है बल्कि पूजा पद्वति और प्रक्रिया में भी पर्याप्त परिवर्तन आया है । बजरंग बली के दर्शनार्थ लोग न केवल सुबह 3 बजे से ही लाइन लगाने लगते हैं बल्कि कई भक्त लेट कर कई किलोमीटरों की यात्रा करके बजरंगबली के दर्शन करने आते हैं । शहर के हर मन्दिर में भारी भीड़ इकट्ठी होती है और मूल पुराने मन्दिर की तो चर्चा ही क्या …… जब तक जीवित रहे तब तक हर साल जेठ के पहले मंगल पर नवाब शुजाउद्दौला दर्शन हेतु पैदल नंगे पैर जाते थे । उनके द्वारा इस पुराने मन्दिर के जीर्णोद्धार का प्रमाण इस्लाम का चिन्ह चांद तारा का चिन्ह इस मंदिर के शिखर पर आज भी देखा जा सकता है । आज भी इस मंदिर में सभी धर्मों के अनुयायियों को आज के दिन बजर्गबली के दर्शन करते देखा जा सकता है। साथ ही इस उत्सव के भौगोलिक दायरे का भी फैलाव हुआ दिखता है । आज लखनऊ के पास के सीतापुर, हरदोई, मलिहाबाद, बाराबंकी कानपुर, उन्नाव आदि शहरों में इस दिन भंडारे और प्याऊ दिखने लगे हैं ।
मुझे गर्व है इस श्रेष्ठ परम्परा का हिस्सा होने पर। आप सभी को बड़े मंगल के इस महापर्व की हार्दिक
बधाई
और मैं आप सभी को इस महापर्व में शामिल होने के लिए निमंत्रित भी करता हूँ । कभी अवसर निकल कर जेठ के किसी भी मंगल पर हमारे शहर पधारें और हमारे इस महापर्व के साक्षी बन कर प्रसाद ग्रहण करें
पुनः आप सभी को बड़े मंगल की बधाई ।
© राहुल सांकृत्यायन
(लोक माध्यम से साभार)
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मूर्धन्य साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन जी का बड़ा मंगल को महिमा मंडित करता आलेख भारतीय संस्कृति का गंगा जमुनी तहजीब का नायब उदहारण है