
-मनु वाशिष्ठ-

उन पुराने दिनों की तो बात ही निराली थी, सर्दियों में चूल्हे के चारों ओर घेर कर बोरी पर बैठ कर खाने का आनंद, वाह! क्या स्वाद था, साथ में हाथ सेंकते /तापते भी जाते। पतीली में पका भात, और बटलोई में पकी अरहर की दाल (यू पी में अरहर दाल अधिक पसंद की जाती है ), ऊपर से हींग जीरे देशी घी का #बघार, साथ ही बथुए के रायते में #धुमार (जलते कंडे पर हींग, जीरा, घी या तेल डालकर उस पर खाली मटकी उलटी रख दी जाती, जब धुंआ भर जाए तब मटकी सीधी कर रायता डाल कर बंद कर दिया जाता) हरी मिर्च और गुड़ की डली, सारी स्वाद इंद्रियां सक्रिय हो जाती। फिर नई भाभी के हाथ के पतले पतले फुलके खाने और उन्हें परेशान करने के लिए सभी कजिन्स को मिला हम छः नंद देवर, जब तक दोबारा आटा नहीं गुंथवा लेते, खाते जाते। कांसे की थाली में खाना और पटरे पर शाही अंदाज में बैठ जाते। अम्मा की जो डांट पड़ती, आओ बैठो मैं बनाती हूं। फिर अम्मा बनाती गिर्रीशाही रोटी मतलब बड़ी बड़ी, सब चुपचाप खिसक लेते। जब रात होती तो चूल्हे की राख में खेत की ताजा मूंगफली हो या शकरकंद भून कर खाने का आनंद, स्वाद ही अलग होता था। किस्से कहानियों बातों में समय का पता ही नहीं चलता था। कभी जिस राबड़ी/ महेरी को (छाछ में ज्वार, बाजरे आदि के मोटे आटे को घोल कर पकाना) गरीबों का खाना माना जाता था, अब शहरों/ शादियों में कुल्हड़ में स्वाद लेकर पिया जाता है। आज ऑन लाइन डिलीवरी से खाना मंगाना तो बहुत आसान हो गया है, लेकिन आज की भागम भाग वाली जिंदगी ने, सेहत और अपनेपन के साथ स्वाद और आनंद दोनों ही छीन लिए। आज युवा पैसा खूब कमा रहे हैं लेकिन इस आधुनिकीकरण में कुछ तो है जो छूट रहा है।
__ मनु वाशिष्ठ, कोटा जंक्शन राजस्थान
बचपन की यादें ताजा कर दी लेखिका मनु वशिष्ठ ने, गांव में गोबर गेरू मिला लीपा गया घर और जाड़े में रात मूंग दाल की पकौड़ी,बाजरे के पुए खाने के बाद गर्म राख में बिकती मूंगफली और शकरकंदी का जायका लेने में नहीं चूकते थे.वाह वह भी क्या दिन थे
आज के बच्चे इन सब चीजों से वंचित हैं, धन्यवाद आदरणीय ????
क्या बात है, पुराने दिनों की यादें ताजा कर दी आपने बहुत बहुत बधाई