
-मनु वाशिष्ठ-

अस्सी नब्बे साल पहले, आज जैसा माहौल नहीं था। आज तो लड़कियां अपनी शादी में सब कुछ कपड़े, ज्वैलरी, होटल, खाने की, रुकने की व्यवस्था से लेकर हनीमून तक की प्लानिंग अपनी पसंद अनुसार करती हैं। पहले तो शादी का नाम सुनकर ही रोना धोना शुरू हो जाता, कई बार खुश होने पर भी लड़कियां प्रकट नहीं करती थीं, स्वयं की तैयारी की तो बात ही नहीं। उस समय दहेज में एक संदूक (लकड़ी या धातु का बना बक्सा, पेटी) अवश्य दिया जाता था, दादी को भी मिला,अपने मायके से। आज भी पौरी (आज की भाषा में लॉबी) में शान से रखा है, मेरी दादी का वह संदूक। विशाल संदूक पर लटकते दो ताले, सुरक्षा प्रहरी ही प्रतीत होते थे, संदूक क्या … खजाना भरा होता था। इतना बड़ा गहरा कि वयस्क बच्चा खड़ा हो जाए, और सो जाए इतना लंबा चौड़ा, जिसकी तैयारी उनकी अम्मा बड़े जतन से, बहुत पहले ही करना शुरू कर दिया करती थी। सही पहचाना, मैं उन पुराने दिनों की ही बात कर रही हूं जो अब सुनहरी इतिहास बन चुकी हैं। उस संदूक में उनकी अम्मा दहेज या कहें स्नेह की गठरी के रूप में, लाल, पीली, और नीली जरी वाली लहंगा चोली, कढ़ाई वाली, बनारसी साड़ियों के साथ चूड़ी, चादर, कुछ नेग के लिए यथा सामर्थ्य चांदी सोने की गिन्नियां, पीतल, चांदी के बर्तन (स्टील तो था ही नहीं) और थोड़े पैसे भी रखे गए। ससुराल में कोई ताना ना मारे, शायद इस डर से इतना कुछ रख दिया हो दादी की मां ने, और संदूक इतना भारी हो गया कि चार जनों से ना उठे। सामान के साथ ही अम्मा की सीख और संस्कारों जैसे सब वहां पर, बिटिया की ससुराल में भी देखेंगे। यह भी एक तरह से इम्तहान होता था, बेटी की #अम्मा का। मायके से क्या क्या लाई है नई बहू, क्या सोचेंगे, यही सोच कर संदूक भर दी जाती। बेटी के जरूरत के सभी सामान के साथ, हाथ से कढ़ाई वाली चादर, हाथ के ही बनाए तरह तरह के पंखे, खिलौने, कम्बल, समधियों समधिनों के कपड़े, रिश्तेदारों के, बच्चों के जोड़े, नेग, और भी बहुत कुछ। कुछ दृश्य, कुछ अदृश्य सामान, सब कुछ बेटी को संभाले ही रखना था ससुराल में। इस संदूक में अम्मा का मान, मर्यादा, लाड़, वात्सल्य भी रखा गया था, इसके बिना ससुराल में कैसे रहती बिटिया, इसी से शायद भारी हो गया संदूक! ननद रानी ने खोला, और संदूक खुलवाई का अपना मनपसंद नेग उठा लिया, वो सोने की बालियां जो अम्मा ने बड़े प्यार से सहेज रखी थी अपनी मां की अनमोल विरासत, बेटी को देने के लिए। जिसमें गुथी थीं दो मांओं (दादीमां की मां को उनकी मां ने दी थी) की दुआएं। ससुराल में सबने बहू की बड़ी बड़ी सी आंखें देखीं, पर आंखों की भाषा पढ़ने में शायद सभी अनपढ़, असमर्थ। उसकी आंखों में काजल सब को दिखा, पर उसमें समाया गरम पानी का समंदर किसी को नहीं दिखा। किसी को अच्छा लगा किसी ने कमी भी निकाली। सबकी नजरें सामान पर, भारी संदूक सबने देखी परखी खोली, पर मन की संदूक की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता, ना ही जरूरत समझी गई। बहू की आंखें डबडबाई, और संदूक में जैसे बंद हो गई थी एक बेटी हमेशा के लिए। लेकिन धीरे धीरे समय के साथ संदूक से निकल कर दादी की जिदंगी पूरी हवेली के कोने कोने में रच बस गई थी, बहू अब उम्र के साथ मालकिन (जमींदारनी) जो बन गई। वह संदूक भले ही जर्जर हो चुकी है, लेकिन बड़ी शान से आज भी रखी है हवेली की पौरी में, दादी का अहसास कराती, जिसमें एक बेटी रहती है। पीढ़ियां बदल जाती हैं, पर यादें तो अपनी ही सुहाती हैं जब भी उससे मिलना होता है, खोल कर देख लेती है हर बहू।
__ मनु वाशिष्ठ, कोटा जंक्शन राजस्थान
जी वही बक्सा बहु कितनी अमीर है कितनी गरीब का पैमाना होता था।बॉक्स बहू का लेकिन धरोहर सबकी बन जाती थी।बहुत ही मार्मिक रचना ????????
जी शुक्रिया!सही कहा आपने????वो बक्सा एक तरह से स्टेट्स सिंबल हुआ करता था।अपने आस पास से ही जुड़ी वास्तविकताएं हैं????
दिल को तौलने वाली रचना
धन्यवाद आदरणीय बंधु ????