रक्षाबंधन ( राखी ) जीवन रक्षा के निर्वाह का भी सूत्र होता

इस राखी के धागे को स्वास्थ्य , रक्षा और सफलता का सूत्र भी समझा जाता था । अब कहां इस तरह के आंगन बचे हैं ? और कहां वह सारे लोग । बचपन बीतने के साथ ही भाई-बहन सब अपनी अपनी मंजिलों पर अपने-अपने लक्ष्य पर और अपने-अपने सपनों के शहर में चले जाते हैं । गांव का घर सूना , आंगन सूना , अपने ढंग से उनकी राहे देखता रहता है । अब आंगन में सारे भाई-बहन कहां आ पाते । सब न जाने कहां कहां चले गए । पर स्मृति में वहीं घर , वहीं आंगन और वहीं रक्षाबंधन का पर्व घूमता रहता है।

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– विवेक कुमार मिश्र-

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डॉ. विवेक कुमार मिश्र

रक्षाबंधन का त्यौहार भाई बहन के प्रेम , समर्पण और एक दूसरे की रक्षा के भाव को लिए हुए आता हैं । यहां रक्षा के हर सूत्र में भाई बहन को यह विश्वास और संकल्प दिलाया जाता है कि वह उसकी रक्षा का दायित्व निभायेगा । भाई बहन के बीच जो परस्पर प्रेम है , समर्पण है वह इस पर्व पर खुल कर सामने आता है । यहां किसी को किसी से कुछ नहीं चाहिए , सब एक दूसरे की खुशी चाहते हैं । जो जहां है जहां रहे वह खुश रहे और इस विश्वास की रक्षा करता रहे की भाई-बहन दोनों एक दूसरे के सुख-दुःख को हरने के लिए बने हैं । रक्षाबंधन का त्यौहार आता तो दूर-दूर से भाई घर पहुंच जाते बहनें प्रतीक्षा करती कि आज के दिन भाई आयेगा या बहन भाई के घर पहुंच जाती । जो भी संभव होता जिसे भी आसानी होती वह पहुंच जाता और भाई बहन का यह प्रेम से पूरित रक्षाबंधन का पर्व मनाया जाता । इस पर्व पर आंगन अलग ही सज जाता । आंगन का दृश्य कुछ यों बनता कि एक साथ स्नान कर सारे भाई पंक्ति में बैठ जाते और बहनें थाल में रक्षासूत्र सजा कर लाती और एक एक कर भाई के कलाई पर बांधती जाती । वह भाई बहुत किस्मत वाला होता जिसकी कलाई पर एक से अधिक राखी बंधी होती । बार-बार भाई अपने हाथों को देखता कि उस पर कैसे कैसे रंग से सजी और किस तरह की राखी बंधी है । यह रक्षासूत्र प्रतिष्ठा का , भाई बहन के प्रेम का , विश्वास का और समर्पण का प्रतीक होता । यहां भाव महत्वपूर्ण होता न की कौन राखी कहां से आई है या कितने की है या यह कहें कि राखी सोने चांदी की तो नहीं है । हो तो भी उसका वह मूल्य नहीं होता जो मूल्य राखी के भाव सूत्र में होती है । बड़ी बहन जिसे सब दीदी कहते , मंझली बहने और छोटी बहन एक एक कर भाई के कलाई पर राखी बांधती जाती । एक से अधिक होते होते होते जब छः सात राखी बंध जाती तो पूरा हाथ ही भर जाता और इस भरे हुए हाथ को लेकर भाई इतराता हुआ घूमता । राखी को बांधकर भाई घूमने निकल जाता । बार बार राखी से भरे हाथ देखता । अब भाई के हाथ पर एक ही राखी होती या वह भी नहीं होती । ज्यादातर एक ही भाई या एक ही बहन होती है या वह भी नहीं होती । अब मुंहबोली बहन या भाव के भाई होते सगे भाई बहन तो कम ही होते जा रहे हैं जो हमारे पारिवारिक भाव और जीवन दशा को अलग से ही संकेतित करते हैं ।
रक्षाबंधन का पर्व भारतीय समाज और संस्कृति के उत्सव प्रियता और भाई-बहन के परस्पर प्रेम , समर्पण रक्षा और अस्तित्व का पर्व है । यहां रक्षा का जो सूत्र बहन , भाई के कलाई पर बांधती है वह एक तरह से अमिट भाव की तरह होता है । रक्षा का सूत्र जीवन रक्षा के निर्वाह का भी सूत्र होता है । बहन भाई के कलाई पर रक्षा सूत्र बांधती है तो यह भाव होता है कि भाई को लंबी उम्र मिले । वह यशस्वी बने और जीवन पथ पर सफल रहे , वहीं भाई ! बहन को यह विश्वास दिलाता है कि वह उसकी रक्षा का दायित्व उठायेगा । उसकी रक्षा करेगा । रक्षाबंधन का त्यौहार सीधे-सीधे भाई के लिए राखी खरीदने से लेकर और उसके कलाई पर राखी बांधने तक चलता है । बहन थाली में सजाकर राखी लाती है राखी के साथ कुमकुम रोली अक्षत और मिठाई होती है । जब बहन राखी बांधती है तो भाई थाली में अपनी क्षमता अनुरूप रुपए रखता है । यह सब बचपन से हम सब देखते आ रहे हैं । हर साल आंगन में राखी का त्यौहार इसी तरह सज धज के साथ आता था । आंगन भाई-बहन के इस अटूट प्रेम संबंधों से सज जाता था । याद आता है कि आंगन में हम सारे भाई कतारबद्ध होकर बैठे होते और बहने एक-एक कर राखी बांधती जाती । देखते-देखते कलाई पर एक साथ 6-6 या उससे भी ज्यादा राखी सज जाती । इस राखी सजे हाथ को बार बार भाई देखता । राखी के रंग और सूत्र लुभाते रहते हैं जिसे भाई देखता रहता है। इस राखी के धागे को स्वास्थ्य , रक्षा और सफलता का सूत्र भी समझा जाता था । अब कहां इस तरह के आंगन बचे हैं ? और कहां वह सारे लोग । बचपन बीतने के साथ ही भाई-बहन सब अपनी अपनी मंजिलों पर अपने-अपने लक्ष्य पर और अपने-अपने सपनों के शहर में चले जाते हैं । गांव का घर सूना , आंगन सूना , अपने ढंग से उनकी राहे देखता रहता है । अब आंगन में सारे भाई-बहन कहां आ पाते । सब न जाने कहां कहां चले गए । पर स्मृति में वहीं घर , वहीं आंगन और वहीं रक्षाबंधन का पर्व घूमता रहता है। अब जो जितनी दूर गया उसकी आंखों में वह आंगन और तेजी से घूमने लगता है । वह समय चक्र को देखता है कि समय किस तेजी से भाग रहा है कहां भाई बाजार से राखी खरीद कर लाता और बहन डिजाइन आदि बताती और फिर रक्षाबंधन के दिन सारी राखी भाई के कलाई पर सज जाती और रेडियो पर राखी के दिन के गाने बज रहे होते , भाई बहन के परस्पर प्रेम की कहानियां सुनाई जाती । लगातार भाई को याद दिलाया जाता कि तुम्हें बहन की रक्षा करनी है । और ये सब केवल बातें नहीं थी यह सब हमारी संस्कृति की गहरी जड़ों से निकली ध्वनियां थी….जिनका खास अर्थ होता और जिसे बचपन से ही मन पर बिठा दिया जाता था। पर देखते देखते गांव घर आंगन सब दूर हो जाते और नये शहर नई दुनिया नये सिरे से सामने आ जाते । भाई-बहन सब एक साथ नहीं होते सब अपने-अपने शहर में अपनी-अपनी दुनिया में अपने-अपने जीवन साधनों के साथ रह रहे हैं । ऐसे में राखी अब लिफाफे में बंद होकर दूर-दूर शहरों तक चली जाती है । अब राखी आनलाईन प्लेटफार्म के जरिए भी आ जाती। तकनीक और बाजार के द्वारा लगातार हमारी दुनिया को सुविधाजनक बनाया जाता है। इस क्रम में हमारे पर्व त्यौहार भी आते हैं । बाजार इस समय राखी से सजा है तरह तरह की राखियां टंगी है , रेशम के सूत्र से लेकर सोने चांदी के सूत्र तक और इन सबके साथ राखी का भाव बंध की भाई के हाथ पर बहना को राखी बांधनी है । दूर देश तक इस पर्व की सुगंध व्याप्त रहती है।
भाई बहन देश विदेश कही भी हों , रक्षा सूत्र से इस तरह बंधे होते हैं कि दूरियां महसूस ही नहीं होती। जहां-जहां भाई होते वहां वहां राखी और रक्षा सूत्र नई सज धज के साथ नए नए ढंग से पहुंच जाते हैं। यहां राखी का वही भाव होता जो बचपन से मन पर बसा है। लिफाफे में बंद राखी रक्षाबंधन के दिन उसी भाव से खुलती। एक एक कर थाली में सजाकर रख ली जाती यहां भी राखी के साथ रोली, अक्षत और मिठाई सज जाती और उसी भाव से राखी आज भी बंधती है। हमारे पर्व जीवन उत्सव व संस्कृति के संदर्भ को ऐसे लिए आते हैं कि इनके साथ ही हमारा जीवन चलता हुआ दिखता है। ये पर्व जीवन को संस्कृति से चेतना से मानवीय राग से, अस्तित्व से और मनुष्यता वोध से जोड़ने का काम करते हैं। ये बताते हैं कि हम इस तरह एक सूत्रता में बंधे हैं कोई अकेला नहीं है सबके साथ कोई और है जो उसका साझीदार है, उसके साथ सात समंदर तक चलता रहता है यहां दूरियां भी निकटता में बदल जाती और इन सबके पीछे हमारे पर्व मानवीय संबंधों को लेकर ऐसे खड़े हैं कि ये न हो तो कुछ बचे ही नहीं। यहीं से यह सीख मिलती है कि हमें अपनी पारिवारिकता के साथ , अपने आसपास के साथ अपने परिसर के साथ और अपने परिवेश के साथ एक दूसरे को जोड़ते हुए आगे बढ़ते जाना है ।
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श्रीराम पाण्डेय कोटा
श्रीराम पाण्डेय कोटा
1 year ago

बहन- भाई के अटूट प्रेम का पर्व रक्षाबंधन की समीक्षा डाक्टर विवेक कुमार मिश्र ने विभिन्न दृष्टिकोणों से की है.. अति सुन्दर रचना

Vivek Mishra
Vivek Mishra

बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।