
-ए एच जैदी-

कोटा। एक समय कोटा का दशहरा मेला केवल शहरी क्षेत्र के लोगों के मनोरंजन और खरीदारी के लिए ही नहीं था। पूरे हाडोती क्षेत्र से लोग साल भर की खरीदारी करने यहां आते थे। दशहरा मेला के साथ भरने वाला यहां का पशु मेला भी देश भर में प्रसिद्ध था। यहां तक कि लोग पशुओं की खरीद-फरोख्त के अलावा अपने पशुओं की साज-सज्जा की वस्तुएं भी यहां मेले से ही खरीदते थे। इनमें पशुओं के गले में बांधी जाने वाली घंटियों के अलावा तरह-तरह के रंग बिरंगे धागे, मालाएं, सीप की माला इत्यादी होती थी। दर्जनों दुकाने तो लाठियों की होती थीं जिन्हें ग्रामीण पशुओं को चराने के दौरान हमेशा अपने साथ रखते थे।

एक समय तो यहां मेले में इस तरह के सामान की दर्जनों दुकानें होती थीं। हाडोती में दिवाली पर लक्ष्मी पूजन के अगले दिन बैलों की पूजन की परम्परा है। किसान अपने बैलों को सजाते थें उनके मेंहदी लगाना, सींगों और खुरों को तेल लगाकर चमकाना इस साज सज्जा का हिस्सा था। उन्हें मोतियों और सीप की मालाएं पहनाई जाती थीं और फिर बैलों को शान से लेकर पूरे गांव में निकलते थे। लोग उनके बैलों को चमकाने के लिए पटाखे चलाते। तब यह देखा जाता था कि किस के बैल पटाखे की आवाज से नहीं चमके। कई बैल तो रस्सी छुडाकर भागने की फिराक में रहते थे। ऐसे समय बैलों को साधना भी एक कौशल था।

लेकिन खेती में आधाुनिक उपकरणों एवं मशीनों के उपयोग से बैलों की उपयोगिता खत्म हो गई। जो बैल कभी किसान की समृद्धि का प्रतीक माना जाता था वह गांव में किसी के दरवाजे बंधा दिखाई नहीं देता। उनकी जगह टेक्टर ने ले ली है। इसी वजह से दशहरा मेला में पशुओं का साज श्रंगार का सामान बेचने वाले और उनके खरीदार दोनों ही बहुत कम नजर आते हैं। कभी दर्जनों दुकानों लगती थीं आज इन्हें ढंूढना पडता है।
(लेखक नेचर प्रमोटर एवं ख्यातनाम फोटोग्राफर हैं)