rangnath
श्री रंगनाथ स्वामी मंदिर

डॉ. पीएस विजयराघवन
(लेखक और तमिलनाडु के वरिष्ठ पत्रकार और संपादक)

श्रीरंगम जिसका वास्तविक तमिल नाम तिरुवरंगम है तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली शहर में स्थित है। श्रीरंगम में आदिशेषनाग पर शयन मुद्रा में विराजित श्रीरंगनाथस्वामी भगवान के मंदिर का उल्लेख संगम साहित्य में मिलता है। संगम साहित्यकाल ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से ई. प. चैथी शताब्दी तक माना जाता है। श्रीरंगम का यह मंदिर भगवान विष्णु के सात स्वयंभू व्यक्त क्षेत्रों में से एक है जिनका वर्णन ‘नालायरम दिव्यप्रबंधम्य में हुआ है। दिव्यप्रबंधम में भगवान का यशोगान करने वाले वैष्णव संत आलवार थे जिनका जीवनकाल छठी से नौंवी शताब्दी तक रहा। वैष्णव सम्प्रदाय के १०८ दिव्यदेशम मेें यह मंदिर पहले क्रम पर है। इसलिए इसे आदिरंगम भी कहा जाता है। कोविल का शाब्दिक तात्पर्य तमिल में मंदिर से है। लेकिन वैष्णव सम्प्रदाय के अनुयाइयों के लिए कोविल से आशय श्रीरंगम के इस अतिप्राचीन मंदिर से है जो कावेरी तट पर बसा है।

विशाल मंदिर व गोपुरम

मंदिर की वेबसाइट के अनुसार श्रीरंगम को दुनिया का सबसे बड़ा सक्रिय हिन्दू मंदिर माना जा सकता है क्योंकि इसका क्षेत्रफल लगभग ६ लाख ३१ हजार वर्ग मीटर (156 एकड़) है जिसकी परिधि 4 किमी है। श्रीरंगम से भी बड़ा विष्णु का मंदिर कम्बोडिया के अंकोर में है जिसका नाम अंकोरवाट है। यह मंदिर बारहवीं शताब्दी का है हालांकि श्रीरंगम मंदिर की तरह सक्रिय नहीं है। श्रीरंगम मंदिर का परिसर 7 परिधीय दीवारी, अनुभागों और 21 गोपुरम से बना है। मंदिर का धवलवर्णीय राजगोपुरम 236 फीट (72 मी.) ऊंचा है जो एशिया का दूसरा सबसे बड़ा गोपुरम है। इसके बारे में एक मिथक है कि गोपुरम के ऊपर से श्रीलंका के तट को देखा जा सकता है। मंदिर परिसर में कई मंदिर हैं और प्राचीन मूर्तिकला का परिचय देता आइरकाल मण्डपम यानी हजार स्तम्भ वाला सभागार है। वस्तुतः स्तम्भों की संख्या ९५३ है लेकिन सांकेतिक रूप से इसे तमिल में आइरकाल मण्डपम कहा जाता है। विदेशी सैलानियों की भी बड़ी संख्या में श्रीरंगम में आवाजाही होती है। हालांकि नियमों के तहत वे मंदिर के दूसरे दरवाजे से आगे अनुमति के हकदार नहीं है। मंदिर के समयकाल को लेकर पुरातत्व विभाग के पास गहन जानकारी नहीं है। विभाग के आंकड़े आठ से दसवीं शताब्दी तक के है।

शाही इतिहास

तिरुचि पर चोल, पाण्ड्य, होयसला व विजयनगर शासकों का आधिपत्य रहा। इनका शासनकाल 900 से 1600 ईस्वी तक रहा। फिर मुगल और ब्रिटिश शासक आए। इन शाही सोपानों के बाद भी मंदिर की अक्षुण्णता बराबर रही। भारतीय राजाओं ने तो आपसी द्वंद्व के बाद भी मंदिर की शुचिता और विस्तार को लेकर कोई समझौता नहीं किया। जनश्रुति यह है कि श्रीरंगनाथस्वामी की मूर्ति जहां रखी है वह घने बीहड़ का हिस्सा थी। वृक्षों के बीच छिपी इस स्वयंभू विग्रह पर सबसे पहली नजर एक चोल राजा की पड़ी जो एक मिऋू का पीछा करते वहां आया था। उस शासक ने विग्रह को निकलवाया और मंदिर का शुरुआती निर्माण कराया।
कालांतर में अन्य राजाओं ने इसका विस्तार किया। एक कहानी यह भी है कि मुगल शासक मलिक कफूर की सेना ने 1310-11 में यहां हमला किया और विग्रह को लूटकर दिल्ली ले गई। श्रीरंगम के श्रद्धालु और भक्त दिल्ली पहुंचे और शासक से गुहार लगाई कि विग्रह को लौटाया जाए। श्रद्धालुओं की निष्ठा से प्रसन्न कफूर ने विग्रह को लौटाने का आदेश दिया। उस वक्त कफूर की बेटी सुरातनी विग्रह को लेकर आसक्त हो गई। सुरातनी विग्रह के पीछे-पीछे श्रीरंगम चली आई। कहा जाता है कि मंदिर के गर्भगृह के सामने खड़ी सुरातनी विग्रह में विलीन हो गई। मंदिर के अर्जुन मण्डपम में आज भी सुरातनी की तस्वीर प्रदर्शित है। सुरातनी को तुलुक्क नाचीयार के रूप से जाना जाता है।
प्रतिदिन सुरातनी की तस्वीर को चपाती का भोग लगता है और भगवान रंगनाथ के साथ उनका कल्याण उत्सव भी हर साल सोल्लास मनाया जाता है। एक अन्य कहानी 1323  की ही कही जाती है कि मलिक की सेना ने जब श्रीरंगम पर चढ़ाई की तब वैष्णव संत स्वामी देशिकन ने अपने अनुयाइयों के साथ विग्रह को यहां से तिरुन्नलवेली विस्थापित कर दिया।
13 हजार वैष्णव भक्तों ने विग्रह की रक्षा के लिए प्राण न्यौछावर किए। अंत में कफूर की सेना को रोकने में मंदिर की देवदासियों ने भूमिका अदा की जिन्होंने सेनापति को अपने वश में कर लिया। स्वामी देशिकन फिर छह दशक बाद मूल विग्रह के साथ श्रीरंगम आए। इस दौरान वे मदुरै, केरल, मैसूर, तिरुनारायणपुरम और तिरुपति में रहे।

ब्रह्मा को मिली भेंट

पुराणों के अनुसार जगतपिता ब्रह्मा को रंग विमान के रूप में महाविष्णु का विग्रह मिला जब वे तप मुद्रा में थे। विष्णु ने उनसे विनती की कि ऐसे सात विग्रह भूलोक पर स्थापित किए जाएं। उसी अनुसार श्रीरंगम, श्रीमष्णम, वेंकटाद्रि (तिरुमला), सालीग्रामम (मुक्तिनाथ), नेमिशारण्य, तोटाद्रि व बद्रीनाथ में भगवान के विग्रह स्थापित हुए। ब्रह्मा ने यह विग्रह मुनि विराजा को दिया। विराजा से वैवस्वत, मनु और इक्ष्वाकु से भगवान राम को विग्रहमिला जो स्वयं विष्णु के अवतार थे। उन्होंने इसकी पूजा अर्चना की। लंका विजय होने के बाद अयोध्या से लौट रहे विभीषण को भगवान राम ने यह विग्रह दिया। तिरुचि होते हुए जब विभीषण लंका जा रहे थे उस वक्त भगवान ने यहीं स्थापित होने की इच्छा जताई। वस्तुतः भगवान विष्णु ने राजा धर्म वर्मा की कठोर तपस्या पर प्रसन्न होकर यहां बसने का उनको वरदान दिया था। लेकिन साथ ही विभीषण से कहा कि उनकी दृष्टि लंका पर भी बनी रहेगी। इसलिए भगवान का विग्रह यहां दक्षिण की ओर दृष्टि करते हुए है। साल के 250 दिन यहां उत्सव होते हैं। मुख्य पर्व वैकुण्ठ एकादशी का है। दिसम्बर-जनवरी महीने में पगल पत्तू-रा पत्तू नाम से दस-दस दिवसीय महोत्सव आयोजित होता है। साल भर में देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु यहां आते हैं।

(डॉ. पीएस विजयराघवन की आस्था के बत्तीस देवालय पुस्तक से साभार)

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