
डॉ. पीएस विजयराघवन
(लेखक और तमिलनाडु के वरिष्ठ पत्रकार और संपादक)
तिरुचि के श्रीरंगम के निकट तिरुवल्लरै में भगवान पुण्डरीकाक्ष का मंदिर है, जो बाहर से देखने पर एक दुर्ग की भांति प्रतीत होता है। द्रविड़ स्थापत्य शैली से निर्मित यह मंदिर भी 108 दिव्य क्षेत्रों में शामिल है। मंदिर की महत्ता इसलिए है कि इसकी अलौकिकता का वर्णन दिव्यप्रबंधम में हुआ है। जिसकी रचना वैष्णव संत आलवारों ने की थी। यहां विष्णु का नाम पुण्डरीकाक्ष है तो देवी लक्ष्मी पंकजवल्ली के नाम से प्रतिष्ठित हैं। मंदिर का निर्माण आठवीं सदी में माना जाता है।
निर्माण व इतिहास
मंदिर के निर्माण व विस्तार में पल्लव, चोल, पाण्ड्या, विजय नगर शासकों व मदुरै के नायकवंशों का योगदान रहा। मंदिर से जुड़े तीन शिलालेख चट्टानों पर उकेरे हैैं। दो शिलालेखों में नंदीवर्मन तो तीसरे में दंतीवर्मन राजा के शासनकाल का उल्लेख है। इन शासकों का शासनकाल 732 से 847 ईस्वी तक रहा था। शिलालेखों में भगवान विष्णु के नरसिंह और वराह अवतार का भी वर्णन है। मंदिर की चारदीवारी ग्रेनाइट से बनी है जिसके भीतर सभी सन्निधियां हैं तो छह जलकुण्ड है। एक कुण्ड परिसर के बाहर है। मंदिर का राजगोपुरम जिसका निर्माण प्राचीन काल में हुआ था आज भी अधूरा है। दंतीवर्मन के समय ८वीं सदी में कम्बन अरयन ने स्वस्तिकाकार का मंदिर में कुण्ड बनाया था जिसमें उतरने के लिए चारों तरफ से सीढियां हैं। पुण्डरीकाक्ष मंदिर की दीवारों पर चित्रकारी विजयनगर और नायक शासकों की देन रही।
पौराणिक कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार विष्णु के रूप पुण्डरीकाक्ष उनके ही वाहन गरुड़ के समक्ष यहां प्रकट हुए थे। मुनि सिबी चक्रवर्ती, मार्कण्डेय ऋषि, भूमि देवी, ब्रह्मा व शिव को भी विष्णु ने दर्शन दिए। यहां नैत्यिक छह पूजाएं और साल में तीन उत्सवों का आयोजन होता है। रथोत्सव मार्च अथवा अप्रेल महीने में होता है। यह उत्सव इसलिए भी अहम है कि यहां सदियों से सामुदायिक भोज का आयोजन होता है। मंदिर प्रशासन हिन्दू देवस्थान विभाग के हाथ में है। मंदिर परिसर में ही कृष्ण और रुक्मिणी का मंदिर है जो शिलालेख के अनुसार राजा परकेसरीवर्मन ने बनाया जिनका शासनकाल 907-955 तक रहा। बाढ़ से मंदिर को काफी क्षति पहुंची फिर इसका जीर्णोद्धार महाजनों ने 1262-63 में कराया। मंदिर में भगवान को कमल का पुष्प चढ़ाया जाता है। पुण्डरीकाक्ष का आशय भी कमल से है और लक्ष्मी का नाम भी पंकजवल्ली है। मंदिर में प्रवेश के दो दरवाजे हैं जो उत्तरायन और दक्षिणायन के हिसाब से हर छह महीने में खोले जाते हैं। दक्षिणायन में भगवान को मायवन तो उत्तरायन में तई माद नायकन कहा जाता है। मंदिर के तीर्थों का नाम दिव्य तीर्थम, कांडकर्षि तीर्थम, चक्र तीर्थम, पुष्कला तीर्थम, पद्म तीर्थम और वराह माणिकार्णिक तीर्थम है। मंदिर के स्तम्भों पर भगवान कृष्ण की नृत्य मुद्राओं वाले कई चित्र हैं। मंदिर का अनुरक्षण भारतीय पुरातत्व विभाग के अधीन है। वेल्लरै का आशय तमिल में सफेद चट्टान से है। सफेद चट्टानों की वजह से इस क्षेत्र का नाम तिरुवल्लरै पड़ा। दंत कथाओं के अनुसार सिबी चक्रवर्ती यहां अपने योद्धाओं के साथ ठहरे थे। उस वक्त सफेद सूअर वहां से गुजरा। सिबी ने उसका पीछा किया तो वह एक छिद्र में जा छिपा। पास ही मार्कण्डेय ऋषि तपस्या कर रहे थे। चक्रवर्ती ने ऋषि को पूरी बात बताई। मार्कण्डेय ने उनसे कहा कि वे इस छेद को दूध से भर दें। ऐसा करते वक्त भगवान विष्णु वहां प्रकट हुए। फिर मुनि ने राजा से कहा कि वह 3700 वैष्णव मतावलंबियों को उत्तर से यहां लाए और यही विष्णु के मंदिर का निर्माण कराएं। उसने ऐसा ही किया। यहां जब वैष्णव अनुयाइयों को लाया जा रहा था तब एक की मार्ग में मौत हो गई। उस वक्त भगवान विष्णु पुण्डरीकाक्ष के रूप में प्रकट हुए और खुद की गिनती उन ३७०० मतावलंबियों के रूप में करने को कहा। ताकि मंदिर निर्माण का कार्य नहीं रुके। अन्य कथा के अनुसार लक्ष्मी ने यहां तपस्या की और विष्णु सेंकमलकण्णन के रूप उनके समक्ष प्रकट हुए। इसलिए पुण्डरीकाक्ष भगवान की मूर्ति को तामरै कण्णन भी कहा जाता है। जिसका आशय कमलरूपी नयन भी होता है। भगवान शिव ने भी नेलैवनेश्वरर के रूप में विष्णु की आराधना की ताकि ब्रह्मा के एक सिर को छिपाने से हुए पाप से उनको मुक्ति मिल सके। इसी वजह से विष्णु यहां शिव व ब्रह्मा को दर्शन देते हुए वर्णित हैं।
दिव्य प्रबंधम
बारह आलवार संतों के रचित नलयार दिव्य प्रबंधम में मंदिर का यशोगान हुआ है। पेरियआलवार ने ग्यारह तो तिरुमंगै आलवार ने तेरह काव्यगानों की रचना की। संस्कृत की पुरानी पुस्तकों में इसे उत्तमक्षेत्रम भी कहा जाता है। स्वामी वेदांत देशिकर की रचना हंस संदेशम में इसका उल्लेख मिलता है। मंदिर में प्रवेश की 18 सीढियां भगवद् गीता के 18 अध्यायों का द्योतक है। जबकि अंतिम चार सीढियां चार वेदों की तरफ संकेत करती हैं।
(डॉ. पीएस विजयराघवन की आस्था के बत्तीस देवालय पुस्तक से साभार)