हर्षिल – हुस्न पहाड़ों का

-सैर पहाड़ों की…

हजार बांह वाले देवदार के सूखे ठूंठ से भ्रम होता है कि साक्षात नटराज शिव खड़े हैं। बादल आपको पांव से नीचे बह रही नदी से उठते हुए मालूम होंगे। हर्षिल से तीन किलोमीटर आगे है ‘धराली’ । यहां प्राचीन कल्प केदार मंदिर है। पीपल पेड़ की छांव में स्थापत्य का सुंदर नमूना। पीले फूलों की बगिया और सेब,अखरोट के छोटे-छोटे फल यहां आपका स्वागत करते हैं । शांत वेग से कल्प केदार के चरण वंदन करती वृहद पाट वाली भागीरथी का शीतल जल छूना ऐसे, जैसे शिराओं में बर्फ़ जम गई हो।

-प्रतिभा नैथानी-

प्रतिभा नैथानी

उत्तरकाशी से गंगोत्री के मार्ग में अनेक छोटे-छोटे गांव पड़ते हैं। इन्हीं में से एक है ‘हर्षिल’ । हर्षिल को पहचान दिलाने वाला एक अंग्रेज था, फ्रेडरिक ई विल्सन। सेना से भागकर वह जाने कैसे हर्षिल पहुंच गया। यहां पहुंच कर उसने हर्षिल की वन संपदा को बहुत नुकसान पहुंचाया। देवदार और साल की लकड़ियां काटीं, मोनाल के पंख बेचे, कस्तूरी मृग का शिकार किया, और यह सब बेच-बेचकर एक दिन इतना अमीर हो गया कि अपने नाम की मुद्रा चलाकर वह हर्षिल का राजा ही बन बैठा। बहरहाल उसका बहुत ज्यादा बखान करना उचित नहीं, सिवाय इसके कि मसूरी में बने उसके घर का एक हिस्सा अब लाल बहादुर शास्त्री एकेडमी का भाग है, जो आईएएस अफसरों का प्रशिक्षण केंद्र है।

मीलों तक फैले देवदार के जंगलों के बीच-बीच से फूट रहीं छोटी -बड़ी जल धाराएं, चारों तरफ़ से बह रही नदियों के बीच बच रही ज़मीन पर सेब और अखरोट के बगीचे हैं,राजमा और आलू की खेती है। बांज के पेड़ों की ठंडी-ठंडी हवा, चप्पे-चप्पे पर खिले जंगली फूल और तितलियों का देश है हर्षिल।
कहीं बड़ी-बड़ी चट्टानों के साए में सोई भेंड़े देखकर लगता है, जैसे वह भी सफेद पत्थर हैं। हजार बांह वाले देवदार के सूखे ठूंठ से भ्रम होता है कि साक्षात नटराज शिव खड़े हैं। बादल आपको पांव से नीचे बह रही नदी से उठते हुए मालूम होंगे। हर्षिल से तीन किलोमीटर आगे है ‘धराली’ । यहां प्राचीन कल्प केदार मंदिर है। पीपल पेड़ की छांव में स्थापत्य का सुंदर नमूना। पीले फूलों की बगिया और सेब,अखरोट के छोटे-छोटे फल यहां आपका स्वागत करते हैं । शांत वेग से कल्प केदार के चरण वंदन करती वृहद पाट वाली भागीरथी का शीतल जल छूना ऐसे, जैसे शिराओं में बर्फ़ जम गई हो।

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फोटो प्रतिभा नैथानी

बारिश का समय है। खेतों में धान रोपती स्त्रियां गीत गा रही हैं । स्थानीय बच्चे आडू, पुलम ,खुबानी और काफल बेच रहे हैं। भोले-भाले विक्रेता और चतुर पर्यटक के बीच सौदा दस से लेकर पचास रुपए तक में पट जाता है, जबकि यही फल देहरादून में आपको सौ से दो सौ रुपए प्रति किलो मिलेंगे।
यहीं एक और गांव है ‘मुखबा’, जहां सर्दियों में गंगोत्री के कपाट बंद होने के बाद गंगा जी की डोली लाई जाती है। सारे भवन और मंदिर लकड़ी के बने हुए हैं। दिन में तो यह अपनी एक ख़ास छवि छोड़ता ही है ,रात में टिमटिमाते बल्ब इसे और ज़्यादा आकर्षक बनाते हैं, लगता है जैसे यह भी आसमान का हिस्सा है। अगर मौसम साफ़ है तो कुछ देर खुले आकाश के नीचे रहिए। चांद-तारे बहुत पास नज़र आते हैं। मन करता है, दो-चार तोड़कर आंचल में छुपा के रख लें।
बस ! इतना सा ही तो है हर्षिल। इस कदर छोटा कि बड़ी जल्दी दिल में समा जाता है और फिर कभी भुलाए नहीं भूलता।

 

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