
-कृष्ण बलदेव हाडा-

कोटा। राजस्थान के कोटा संभाग में काले बादल छटने के बाद अब बरसात का दौर थम सा गया है लेकिन किसानों की उम्मीदों पर से काली घटाएं छटने का नाम ही नहीं ले रही, क्योंकि कई स्थानों पर खेतों में अभी भी पानी भरा हुआ है जबकि अतिवृष्टि से प्रभावित गांव में पानी और हवा के दबाव में फसले जमीन के समतल हो गई है। कोटा संभाग में आज अधिकांश स्थानों पर वर्षा का दौर थम गया, लेकिन बे-मौसम बरसने के बाद लौटी बरसात किसानों के लिए नाउम्मीदी ही छोड़ गई क्योंकि अब इस बरसात से तरबतर होने के बाद कटकर खेत-खलियान में पड़ी सोयाबीन और कटने को तैयार मगर अब बरसात की बौछारों और तेज हवाओं के थपेड़ों से जमीन के समतल हो चुकी धान की फसल उन्हे लाभ दे पाएगी,इसकी उम्मीद नाउम्मीद के बराबर ही है और अगर कहीं कुछ बच-खुच गया है तो वह धान के बोरे में कटोरे से अधिक नहीं होगा।
मुनाफे की उम्मीद में जोता अब जेब से लगेंगे पैसे

इस बे-मौसम बरसात से हुई बर्बादी की आंखन देखी आज कोटा जिले के सांगोद क्षेत्र के कुराडिया से कुंदनपुर गांव के बीच जाने वाले रास्ते के एक खेत में मिली जिसे एक किसान जगदीश ने मुनाफे पर ले रखा था और मुनाफे की रकम निकालने के बाद परिवार के लालन-पालन के लिए मुनाफे की उम्मीद में जोता था लेकिन पिछले चार-पांच दिनों में लगातार हुई बरसात ने अब उसकी उम्मीद पर न केवल पानी फेर दिया है बल्कि धान के खेत में भरे पानी को निकालने के लिए अपने हर्जे-खर्चे पर ट्रैक्टर से इंजन के जरिए पानी निकालने को मजबूर होना पड़ रहा है ताकि धान को सड़ने से रोका जा सके।
इस क्षेत्र के ज्यादातर गांवो में कमोबेश ऐसे ही हालात हैं जहां या तो धान की खेतों में पानी भरा है या फिर इस हद तक जमीन पर आडी पड़ गई है कि किसानों के लिए अब उसे काटना मुश्किल हो जाएगा।
दोहरी दुखद स्थिति

क्षेत्र के प्रगतिशील किसान उम्मेद सिंह कुराडिया ने कहा कि किसान दोहरी दुखद स्थिति का सामना कर रहे हैं। अन्य फसलों की तुलना में ज्यादा मुनाफा देने वाली धान को बुआई के बाद पिलाई के लिए भी ज्यादा पानी की जरूरत होती है तो अधिक डीजल-बिजली जलाने का खर्च उठाकर किसान धान को भरपूर पानी पिलाते हैं लेकिन अब आकाश से बरसे पानी ने धान के खेतों को कुछ ज्यादा ही सींच दिया है कि धान की फ़सल गलकर नष्ट हो गया है। उम्मेद सिंह को उम्मीद है कि अगले दो-चार दिन में धूप खिलेगी तो धान-सोयाबीन को सूखने का अवसर मिलेगा, लेकिन इसका कोई लाभ मिलने वाला नहीं है क्योंकि इतनी बरसात के बाद भी यदि किसी किसान को सोयाबीन कट कर खेत में पड़ी फसल से उम्मीद है तो व्यर्थ ही होगा क्योंकि धूप की कड़क से सोयाबीन की फली तड़क जाएगी और दाने बिखर जाएंगे, जिन्हें समेटने की कोशिश भी व्यर्थ होगी।
मुआवजा मिलने पर संशय

इस बीच अब कोटा संभाग में इस बे-मौसम बरसात से हुई फसली क्षति के सर्वे का काम शुरू हो गया है लेकिन ज्यादातर किसानों को जागरूकता के अभाव में इस नुकसान का सर्वे के बाद उसका मुआवजा मिलने में या तो दिक्कत आएगी या फिर मिलेगा ही नहीं। इस बारे में बूंदी जिले के बरूंधन गांव के एक प्रगतिशील किसान राम प्रसाद सैनी ने कहा कि किसान रात-दिन मेहनत-मजदूरी करके अपने खेत में फसल उगाता है लेकिन यदि किसी प्राकृतिक आपदा की वजह से उसकी मेहनत पर पानी फिर जाता है तो उसके बारे में सूचना देकर सर्वे करवाने तक की जिम्मेदारी भी सरकार उसी प्रकृति पीड़ित किसान पर छोड़ देता है कि वह 72 घंटे में नुकसान के बारे में बीमा कंपनियों को फोन पर सूचित करें। रामप्रसाद सैनी ने सवाल उठाया कि कितने किसान इतने जागरूक हैं जिन्हें इस प्रावधान के बारे में जानकारी है? इसके अलावा कितने किसान है जो फोन या सेलफोन के जरिए ऐप और ऑनलाइन शिकायत दर्ज करने में तकनीकी रूप से सक्षम है? यह राज्य सरकार का जिम्मा होना चाहिए जिसके पास राजस्व विभाग के फील्ड स्टाफ का अमला है जो 72 घंटे में किसानों के खेतों में पहुंचे और सर्वे करके वास्तविक खराबे की रिपोर्ट अपने उच्चाधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत करें।
बीमा कंपनी के प्रतिनिधि नुकसान का आकलन करें

इस संबंध में बारां जिले के अटरू क्षेत्र में मोठपुर इलाके के हाथी दिलोद गांव के किसान जय सिंह का कहना है कि जब किसान के सहकारी समितियों या सहकारी बैंकों से किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) के जरिए उसके मालिकाना हक की जमीन के रखने के हिसाब से लॉन दिया जाता है तो पहले ही बीमा की रकम काट ली जाती है और फसली मौसम में
बीमा कंपनियों के प्रतिनिधि फसली बीमा करने के लिए किसानों के घरों तक पहुंच जाते हैं तो ऐसी सूरत में जब किसान पर मौसमी मार पड़े तो सर्वे करने के लिए सरकारी कर्मचारियों एवं बीमा कंपनी के प्रतिनिधियों को चाहिये कि वे खुद चलकर किसान के द्वार पहुंचे और नुकसान का आकलन करें। जय सिंह का कहना है कि सरकारी स्तर पर आपदा पीड़ित किसानों को मुआवजा देने के बारे में बढ़-चढ़कर दावे किए जाते हैं, लेकिन सर्वे के बाद नुकसान का आकलन करके मुआवजा देने की नौबत आती है तो राज्य सरकार के कारिंदे ही नहीं बल्कि बीमा कंपनियां भी पीछे हट जाती है। जबकि यही बीमा कंपनियां खेत में बीज के बोने से पहले ही बीमा करवाने के लिए तत्पर बैठी रहती है लेकिन जब मुआवजा देने की नौबत आती है तो अव्वल तो हल्का पटवारी ही नुकसान का इतना कम आकलन करता है कि किसानों को मुआवजा देने की सरकार-बीमा कंपनियों के लिए नौबत ही नहीं आती लेकिन जब कभी वास्तव में मुआवजा देने की नौबत हो तो बीमा कंपनियों के प्रतिनिधियों का कोई ठौर-ठिकाना ढूंढे से भी नहीं मिलता।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)
किसानों के लिए बहुत आपदकाल। खेती ही उनका जीवन है जीविका है।