अपने गांव की याद करता हूं, बड़े शहर में जो रहता हूं।

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बड़ा शहर

-प्रकाश केवडे-

prakash kevde
प्रकाश केवडे

भीड़भाड़ धक्का मुक्की
हर जगह कतार दर कतार
राह पर गाड़ियों की भरमार
रोज़ यह मैं सब सहता हूं
बड़े शहर में जो रहता हूं।

बेगाने चेहरे अनजाने लोग
अपनी खुशियां अपने सोग
नीम अंधेरा तो दीप जगमग
ख़ामोशी से सब देखता हूं
बड़े शहर में जो रहता हूं।

ना होता रोज़ी का सवाल
घर छोड़ने का है जो मलाल
तंग कमरे में जीना बेहाल
अपने गांव की याद करता हूं
बड़े शहर में जो रहता हूं।

प्रकाश केवडे

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श्रीराम पाण्डेय कोटा
श्रीराम पाण्डेय कोटा
2 years ago

गांवों में आपसी सौहार्द्र,लंगोटिया साथी, खेतों बागों में अठखेलियां,यह सब छीन जाता है शहरी जिंदगी में,केवड़े जी ने अपनी रचना में ,गांव की जिंदगी से शहर आने की पीड़ा का जिक्र किया है