
बड़ा शहर
-प्रकाश केवडे-

भीड़भाड़ धक्का मुक्की
हर जगह कतार दर कतार
राह पर गाड़ियों की भरमार
रोज़ यह मैं सब सहता हूं
बड़े शहर में जो रहता हूं।
बेगाने चेहरे अनजाने लोग
अपनी खुशियां अपने सोग
नीम अंधेरा तो दीप जगमग
ख़ामोशी से सब देखता हूं
बड़े शहर में जो रहता हूं।
ना होता रोज़ी का सवाल
घर छोड़ने का है जो मलाल
तंग कमरे में जीना बेहाल
अपने गांव की याद करता हूं
बड़े शहर में जो रहता हूं।
प्रकाश केवडे
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गांवों में आपसी सौहार्द्र,लंगोटिया साथी, खेतों बागों में अठखेलियां,यह सब छीन जाता है शहरी जिंदगी में,केवड़े जी ने अपनी रचना में ,गांव की जिंदगी से शहर आने की पीड़ा का जिक्र किया है