ग़ज़ल
– अहमद सिराज फारूकी-

गुलाब चेहरे भी पत्थर में ढलते जाते हैं
वो देखो धूप के अरमां निकलते जाते हैं
पलट के देखा जो हमने तो ये खुला हम पर
सफर वही है मुसाफ़िर बदलते जाते हैं
इसीलिए तो ये नींदें हुई हैं मेरे खिलाफ
कि मेरी आंखों में क्यूं ख़्वाब पलते जाते हैं
वो चढ़ रहा है पहाड़ों की चोटियों पे मगर
क़दम ज़मीन की जानिब फिसलते जाते हैं
कहीं तो होगी मुलाक़ात बिछड़े लोगों से
इसी ख़याल इसी धुन में चलते जाते हैं
वो बेदिमाग़ है लेकिन है अपना मीर सिराज
सो उस के रंग में अब हम भी ढलते जाते हैं
1- जानिब- तरफ
2- बेदिमाग़- नाज़ुक मिज़ाज, जल्द नाराज हो जाने वाला, खिन्न, सरफिरा
(मीर तक़ी मीर ने अपने एक शेर में ख़ुद के लिए इसे किया है)
3-मीर- मीर तक़ी मीर ने अपने एक शेर में ख़ुद के लिए इसे इस्तेमाल किया है
( शाब्दिक अर्थ- सरदार, पथ प्रदर्शक, सालार आदि)

















