
-नीलू चौधरी-

तुम करती क्या हो?
अक्सर दागे जाते हैं
ये सवाल
उस स्त्री से
जो सुबह उठने से
रात के सोने तक
गृहस्थी को संभालती,
सबके मनोभावों को
पढ़ती, समझती,
पूरा करती
हर एक की जरूरतों को।
फिर भी सुनती…
तुम करती क्या हो?
घर में
सबकी खुशियों के लिए
चिंतित रहती जो स्त्री
फिर भी सुनती…
तुम करती क्या हो?
अहर्निश श्रम के बाद
थककर जब होती निढ़ाल
उसी वक्त
कानों से टकराती आवाज
तुम करती क्या हो?
सच! रिसते जख्म पर
नमक छिड़कने जैसा
होता ये सवाल….
तुम करती क्या हो?
फड़फड़ाते उसके होठ
गुम हो जाते
उसके अल्फ़ाज़
पर, असमर्थ हो जाती
अपने आँसुओं को
जज्ब करने में…
फिर भी स्त्री हारती नहीं है
ढूंढ़ लेती है वो
सुकूँ से जीने का तरीका।
तुम करती क्या हो?
अब इस सवाल को
थोड़ा बदल कर
खुद से करती वो सवाल….
क्या मैं कर सकती हूँ
अपने सपनों को साकार?
दिन के चौबिस घंटों से
चुरा सकती हूँ कुछ पल
खुद के लिए?
जी सकती हूँ अपने हिस्से का
इतवार?
स्त्री सीख गई जीना
खुद के लिए भी।
आज स्त्री
घर- बाहर संभालती
अपने वजूद को तलाशती
व्यस्त है,संतुष्ट है।
अब स्त्री ऐसे सवालों से
हो गई बेअसर
फर्क नहीं पड़ता सुनकर
तुम करती क्या हो?
#नीलू_चौधरी (काव्य संग्रह “उम्मीद के फूल”)
उम्दा ???????? शुक्रिया ma’am ????