
ग़ज़ल
शकूर अनवर
सभी समझते हैं उसके ख़याल में गुम हूॅं।
मगर ये सच है में अपने ही हाल में गुम हूॅं।।
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भटक रहा हूॅं मैं सहरा में क़ैस* की मानिन्द।
उरूजे इश्क़* हूॅं लेकिन ज़वाल* में गुम हूॅं।।
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ज़मीं पे मैं कभी दारा कभी सिकंदर* था।
तलाश कर मुझे मैं माहो साल* में गुम हूॅं।।
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क़दम क़दम पे जो मुझको फ़रेब देता है।
मैं लम्हा लम्हा उसी के ख़याल में गुम हूॅं।।
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बिसाते इश्क़* पे बाज़ी पहुॅंच गई है जहाॅं।
मैं उसकी मात हूॅं बस एक चाल में गुम हूॅं।।
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मुझे समझ मेरे चेहरे को ग़ौर से पढ़ले।
मैं एक ऐसी मुहब्बत की फ़ाल* में गुम हूॅं।।
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मैं अपने शेरों में खोया हुआ सा हूॅं “अनवर”।
मेरा कमाल यही है कमाल में गुम हूॅं।।
क़ैस*मजनू का नाम
उरुजे इश्क़* प्रेम की पराकाष्ठा
ज़वाल* पतन
दारा सिकंदर*ये अतीत के दो बादशाहों के नाम हैं
माहो साल* महीने और साल
बिसाते इश्क़* प्रेम रूपी शतरंज खेलने का कपड़ा
फ़ाल*यानी भविष्यवाणी
शकूर अनवर
9460851271