
-डॉ विवेक कुमार मिश्र-

(सह आचार्य हिंदी राजकीय कला महाविद्यालय कोटा)
एक आदमी
आदमी की तरह सोचता
एक आदमी
आदमी की तरह होता
एक आदमी
आदमी की तरह चलता
और चलते चलते कुछ आदमी की बात करता
और कुछ आदमी आदमी से कुछ हो जाते
कुछ हो जाते आदमी
अपने साथ एक दुनिया लिए चलते
चलते चलते जो जिम्मेदारी मिली कि
कुछ आदमी की तरह आदमी हो जाते
एक आदमी और है
जो कुछ नहीं करता
एक आदमी मशीन की तरह
खट खट चलता रहता
एक क्षण भी रुकता नहीं
बस चलता रहता
मशीन के दौड़ में
मशीन होता एक और आदमी
आदमी का होना
और मशीन हो जाना
एक ही बात नहीं है
आदमी को कम से कम आदमी ही रहने दें
मशीन का क्या यहां रखो चाहे वहां रखों
उसके होने में ही दुनिया दिखती है
मशीन होता आदमी
अपने आदमी को न जाने कहां छोड़ आता
उसके पास सब कुछ है
यदि कुछ नहीं बचा तो वह आदमी
जिसके होने में वह होता
यहां कुछ नहीं होता
क्योंकि आदमी कहीं नहीं बचा
और जो बचा है
वह आदमी न होकर एक सूत्र है
तकनीकी सा जिसे कोई और नहीं
बस तकनीकी आदमी ही जानता समझता
तकनीक भर बचा आदमी
बात – बात पर तकनीकी समाधान करता
एक आदमी
आदमी भर ही नहीं होता
उसके साथ समय , सभ्यता , संस्कृति
और जीवन का विस्तार होता
एक आदमी
आदमी होने के साथ
कविता और राग संबंध को जीते हुए
जीवन का छंद और सहज साक्षात्कार होता
जिसमें अकेले आदमी कहीं नहीं होता
यहां आदमी होने से अभिप्राय
सभ्यता और संस्कृति को देखना होता है ।
देखते हुए
बाबू , थोड़ा बाहर भी देख लिया करें
देश दुनिया को देखते हुए संसार में आते हैं
संसार में होना और संसार में आना एक ही नहीं होता
संसार में होने के लिए संसारी ही होना पड़ता
कम से कम इतना तो होना ही पड़ता है कि
अपने आदमी को सामने रख आदमी की तरह बात कर सकें
इस तरह आदमी से बात करते आदमी हो जाये
थोड़ी इधर की थोड़ी उधर की देख लिया करें
थोड़ा आदमी की तरह आदमी होते दुनिया को देख लें
इस तरह थोड़ा बाहर भी निकल लिया करें
केवल अपने भीतर ही झांकना ठीक नहीं होता
कभी कभार इधर उधर देख लेना चाहिए
आदमी को जानने के लिए
थोड़ा घूमना चाहिए
जबतक दुनिया को नहीं देखते
दुनिया कहां सामने आती
कहां अपने को भी जान पाते
संसार को एक दो दिन में नहीं समझ सकते
एक संसार वह भी होता जिसे अपने होने में जीते हैं
संसार को संसार की तरह जीते हुए जी पाते हैं
और संसार है कि ….
संस्कृति के रंग में अपना पूरा अर्थ खोलता है ।