ग़ज़ल
शकूर अनवर
सराब* आयेंगे कितने सफ़र में रहने दे।
फ़क़त तू दूरी ए मंज़िल* नज़र में रहने दे।।
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ख़ुदाया जिसने मेरे दिल के कर दिये टुकड़े।
उसी का ग़म मेरे शामो-सहर* में रहने दे।।
”
यूॅं काटने से दरख़्ते-वफ़ा* को क्या होगा।
कुछ ऐतबार के फल तो शजर* में रहने दे।।
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अभी ठहर कि वो पत्थर अभी नहीं पिघला।
जिगर का ख़ून अभी चश्मे-तर* में रहने दे।।
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ज़माने भर के अगर ग़म तुझे मयस्सर हैं।
किसी के इश्क़ का सौदा भी सर में रहने दे।।
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लड़े मरे भी सही फिर भी एक हैं “अनवर”।
ये बात घर की है तू इसको घर में रहने दे।।
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सराब*मरीचिका
फ़क़त*केवल
दूरी ए मंज़िल*लक्ष्य से दूरी
शामो-सहर*सुबह शाम
दरख़ते-वफ़ा*प्रेम रूपी वृक्ष
शजर*पेड़
चश्मे तर*भीगी हुई आंख
शकूर अनवर
9460851271