गायें घर नहीं जातीं

gai bail
प्रतीकात्मक फोटो

-विनोद पदरज-

vinod padraj
विनोद पदरज

आँखों में अब भी करुणा है
थनों में दूध
पर गायें अब घर नहीं जातीं

जब उन्हें सूनी छोड़ा गया होगा पहले पहल
इधर उधर मुंह मारकर लौट आई होंगी वे
पर किसी ने भीतर नहीं लिया होगा नौहरे में
रोटी नहीं डाली होगी
पानी की भी नहीं पूछी होगी
वे बाहर ही बैठी रही होंगी चौंतरे के पास
तब भी वे कई दिनों तक लौटती रही होंगी
आँखें फिरी देखकर भी
ताड़ना पाकर भी

अब वे स्त्रियां तो हैं नहीं कि भूखी प्यासी मार खाती
जाती रहें जाती ही रहें
उन्होनें जाना छोड़ दिया

अब वे सड़कों पर रहती हैं
गऊचरे तो फाड़ लिए लोगों ने
कागज़ पत्तर पन्नियां उच्छिष्ट खाती हैं
कभी कभी खेतों में भी घुसती हैं
हरे के लिए
पर इस गांव के लोग उधर दौड़ाते हैं
लाठियां लेकर
उस गांव के लोग इधर दौड़ाते हैं
लाठियां लेकर

उन्हें वे दिन याद आते हैं
जब पहली रोटी उनके नाम की सिकती थी
और धराणी उन्हें हाथ से रोटी खिलाती थी
चारा नीरती थी
पानी पिलाती थी पुचकारती हुई
धणी हाथ फेरता था नहलाता था
सींग रंगता था छापे लगाता था
कौड़ियों की कंठी पहनाता था
घंटी लटकाता था
और वे आत्मदर्प से भरी घर लौटती थीं ग्वाल बालों के साथ
घंटी टुनटुनाती हुईं

कभी कभी वे भटक जाती थीं
कैसा शोर मच जाता था –
अरे शाम हो गई गाय नहीं आई
घटा घिर रही है
देखो देखो कहां रह गई
किसी ने बांध तो नहीं लिया
अरे बछड़ा रंभाये जा रहा है

भरे मन से याद करती हैं वे
पर घर नहीं जातीं
कैसा घर किसका घर सोचती हुईं
सड़कों पर बैठी रहती हैं जान जोखिम में डाले

और आर्यावर्त में मारकाट मची है उनके नाम पर
उनका राजनैतिक महत्व बढ़ गया है

Vinod Padraj

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