
चाँद ‘शैरी’
नफरत की आंधियों से नगर सारा भर गया
मिल जुल के जो बनाया घरौंदा बिखर गया
बारूद पर खड़ा था जहाँ हो के बेख़बर
वो आया जलजला कि हर इक शख्स डर गया
खामोश क्यों फलक हैं जमीं क्यों उदास है
रातों का चाँद दिन का वो सूरज किधर गया
मैं ढूंढता रहा हूं सराबों में मुदतों
आँखों में मेरी एक समन्दर उतर गया
वो साथ था तो वार भी गुल की मिसाल थे
वो क्या गया कि साथ ही लुत्फ़े-सफ़र गया
जलते थे लोग उनकी उड़ानों से इस कदर
पर कैंच कोई आके परिन्दों को कर गया
‘शेरी’ वो खेलते हैं तमंचो से आज कल
गुड़ियों से खेलने का जमाना गुजर गया
चाँद ‘शैरी’ (कोटा)
098290-98530