
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
जीने वालों में एक मैं भी हूँ।
वैसे मैं भी ख़ुदा की मर्ज़ी हूंँ।।
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हौसला अब भी दिल में है मौजूद।
चंद साॅंसों में अब भी बाक़ी हूंँ।।
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जगनूओं को पनाह* मिल जाये।
इसलिये ख़ुद में रात ॲंधेरी हूंँ।।
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जा मिलूॅंगा किसी समन्दर से।
चलती-रुकती सी एक नद्दी हूंँ।।
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मेरा मज़हब अगरचे अरबी है।
फिर भी तहज़ीब* से तो हिंदी हूंँ।।
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चाॅंद मेरी ज़मीं का सय्यारा*।
मैं इसी आसमाॅं की धरती हूँ।।
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मुजरिमे-दार* मुझको ठहराया।
वर्ना मैं अपनी बेगुनाही हूँ।।
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और कब तक जिओगे तुम “अनवर”।
मौत कहती है लेने आई हूंँ।।
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पनाह*शरण
तहज़ीब*संस्कृति
सय्यारा*ग्रह
मुजरिमे दार*सूली पर चढ़ने वाला
शकूर अनवर
9460851271
जाति, मजहब, राष्ट्रीयता,तथा जिंदगी के सारे मूल्यों को चंद पंक्तियों में पिरोया है, अनवर साहब ने.