
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-

थी शगुफ़्ता* सा फूल आज़ादी।
बन गई है बबूल आज़ादी।।
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हर तरफ़ ख़ौफ़नाक* सन्नाटे।
किस क़दर है मलूल* आज़ादी।।
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थी कभी गोल-मेज़ में पिन्हाॅं*।
थी कभी होम-रूल आज़ादी।।
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जाॅंनिसारों* ने सर दिये अपने।
तब हुई है वसूल आज़ादी।।
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ख़ाक* में ख़ुद को हम मिला देंगे।
होने देंगे न धूल आज़ादी।।
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इसको छोड़ेंगे किस तरह “अनवर”।
हमने की है क़ुबूल आज़ादी।।
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शगुफ़्ता*खिला हुआ
ख़ौफ़नाक*डरावने
मलूल*दुखी रंजीदा
पिन्हाॅं*पोशीदा छुपी हुई
जानिसारों*प्राण न्योछावर करने वाले
ख़ाक*मिट्टी
शकूर अनवर
9460851271
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बहुत खूब लिखा है आपने अनवर साहब।