जा रहा था जब ये सूरज डूबने। पंछियों की वापसी अच्छी लगी।।

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ग़ज़ल

-शकूर अनवर-

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बिखरी-बिखरी हर ख़ुशी अच्छी लगी।
मुन्तशिर* सी ज़िन्दगी अच्छी लगी ।।
*
उसकी दानाई* का मैं क़ाइल* हुआ।
मुझको उससे दुश्मनी अच्छी लगी।।
*
टेड़ी- मेढ़ी दूर तक ग़म की क़तार।
सांप जैसी यह नदी अच्छी लगी।।
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जा रहा था जब ये सूरज डूबने।
पंछियों की वापसी अच्छी लगी।।
*
होत-होते दिन भी पूरा हो गया।
जाते-जाते शाम भी अच्छी लगी।।
*
नर्म फूलों से चुने रस्ते भी थे।
क्यूँ झुलसती रेत ही अच्छी लगी।।
*
काॅंपती रातों का अपना हुस्न था।
सर्दियों की चाॅंदनी अच्छी लगी।।
*
ऑंधियों के लश्करी* अंदाज़ थे।
मौसमों की छावनी अच्छी लगी।।
*
जगमगाते शहर में “अनवर” मुझे।
अपने घर की ही गली अच्छी लगी।।
*
मुन्तशिर* छिन्न भिन्न, बिखरी हुई,
दानाई* बुद्धिमत्ता,
क़ाइल* मान लेना,
लश्कर*फ़ौजी,
*
शकूर अनवर

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श्रीराम पाण्डेय कोटा
श्रीराम पाण्डेय कोटा
2 years ago

अपना गांव और अपनी गली, जहां बचपन बीता है,इसकी मीठी यादें, ता उम्र याद रहती हैं. शकूर अनवर साहब ने प्रकृति है जोड़कर, अपनी यादों को ताज़ा किया है