जितने मज़लूम हैं ज़माने में। उनको तू अपनी सर परस्ती दे।।

shakoor anwar 00
शकूर अनवर

ग़ज़ल

-शकूर अनवर-

अब तो ख़ुशियों की मय* बरसती दे।
ज़िंदगी दी तो मौज मस्ती दे।।
*
गेहूॅं चावल अगर चे महॅंगे हैं।
इक मुहब्बत तो हमको सस्ती दे।।
*
है तुझे देखने की ताब* किसे।
ऑंख दीदार को तरसती दे।।
*
डूब जाऊॅं तेरे ख़यालों में।
इस बुलंदी* पे ऐसी पस्ती* दे।।
*
दौलते दर्द शायरों को मिले।
उनकी ग़ज़लों में ग़म परस्ती दे।।
*
जितने मज़लूम हैं ज़माने में।
उनको तू अपनी सर परस्ती दे।।
*
शर पसंदी* से दे निजात* “अनवर”।
अम्न वालों को दिल की बस्ती दे।।
*

मय*मदिरा
ताब* ताक़त
बुलंदी* उॅंचाई
पस्ती* बहुत नीचे
मज़लूम* पीड़ित,
शर पसंदी* लड़ाई, झगड़ा,
निजात* छुटकारा, मुक्ति,

शकूर अनवर

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D K Sharma
D K Sharma
2 years ago

बहुत खूब, अनवर साहब।